Friday, August 21, 2009

धर्म अल्पज्ञ का विषय नहीं ज्ञानका स्त्रोत है

हम आज के माज में धर्म का आशय केवल पुरानी रुढियों रिवाजो में बंधे उन लोगों से लेते है जिनके आय का , भरण पोषण का ,और स्वार्थो का माध्यम धर्म होता है |वे आडम्बर और अलौकिक परिवर्तन करने का दावा करतेहै ,वे कैसे भी यह सिद्ध करने का प्रयत्न करते है की वे सर्व श्रेष्ठ है और उनके द्वारा समाज में धर्म के प्रति भय औरघृणा फैलाई जाती रही है |अपने नामों के आगे बड़े बड़े बैनर लगा कर जादू और हाथ की सफाइयों का प्रदर्शन कियाजारहा है और समाज अन्धानुकरण की पराकाष्ठा पर भयभीत अपनी ही दोहरी मानसिकता में जी रहा है
" कभी होता भरोसा कभी होता भरम खुदा तू है कि नहीं "

मित्रों जब कभी हम इतिहास पुरषों की जीवन कथाएँ देखें तो यह अवश्य देखें की वे किस शक्ति,किस उद्देश्य ,किसएक सोच से बंधे थे क्या उनके जीवन वृत पर किसी गुरु का मार्गदर्शन था ,वह गुरु किस आस्था से बंधा था शायदहमे अपने प्रश्न का उत्तर सहज ही मिल जाएगा |आज हम जिस युग में खड़े है वहां सभ्यताएं अभी अधूरी ही है ,
अधूरा विकास अधूरा ज्ञान अधूरा विस्वास और अधूरी आलोचनात्मक दृष्टी |एक दार्शनिक का यह तथ्य कि जहाँविज्ञान और सामाजिक सोच की सीमायें ख़त्म होती है वहां से चालू होता है धर्म |

" सह धारयते इति धर्मः "

अर्थात जो धारण करने योग्य था वो धर्म था ,और धारण करने योग्य केवल कर्म और विस्वास ही होता है ,हम जबईश्वर की बात करते है तो वह कोई मूर्ति मन्दिर या धर्म स्थान नहीं अपितु वह तो हमारे आदर्शों का स्थान होता है |
जिसे वात्सल्य की आवश्यकता थी उसने माँ जैसा बनाकर उपासना की जिसपर अद्वतीय ज्ञान था वह पुत्र मन करप्रेम करने लगा जिसे भय था वह उसे अनंत शक्तिशाली मानकर पूजने लगा और जो हारा हताश और मजबूर थाउसने उसे सबका हल मानकर जानने की कोशिश की |जबकि उसका समबन्ध आत्मा की उस अपरमित शक्ति सेथा जो बल विशवास और चित्त की एकाग्रता से सम्बंधित थी |यही धर्म का मूल भी था |अब जिसपर यह सब नहीं हैवह तो धर्म मायने हो ही नहीं सकता |

"जो पिंड सोई ब्रहमांड "

अर्थात जो ईश्वर है वही मनुष्य है केवल अपनी सत्ता से उसे वह मार्ग चाहिए जिससे वह अपने आवरण उतार करकड़े परिश्रम से अपने आपको जाग्रत कर सके और उसके ये प्रयत्न ही धर्म की वाहिकाओं के रूप में हमारे सामनेआतें है हम यदि इनको नहीं माने तो आप दूसरा मार्ग चुन कर चल सकते है मगर आपका गंतव्य उस अपरमितशान्ति या
मुक्ति मोक्ष या लेवल ऑफ़ सेटिसफेक्शन कहते है ,यह जीवन का निचोड़ भी है|

मित्रों धर्म का आशय यह है की आप अपने कर्म , योग्यता और दया सह्ष्णुता प्रेम और अपनत्व के साथ निस्वार्थभाव से समाज में जीने का संकल्प लें |आप अपनी मानसिक शक्तियों को केंद्रित करके आत्मुत्थान का मार्गप्रशस्त कर सकें |आपसे दुसरों को कभी दुःख पहुचें ,आप आत्मुत्थान के मार्ग पर दुसरों के आलोचक नहीं रहेंबल्कि स्वयं सुधार वादी बने रहें | ईश्वर की सत्ता पर अटल विशवास करते हुए यह ध्यान रखें की कोई अनंतशक्तिशाली प्राकृति कर्ता हमें दिशा दे रहा है उसके बिना हम उसी तरह अधूरे है जिस तरह ज्ञान के बिना इंसान |

शुभ कर्म कर्ता तो स्वयं तर जाए अपने कर्म से
ज्ञानी तारे निज ज्ञान से धर्मात्मा निज धर्म से
जिसके कुछ आधार हो कुल दृव्य विद्या बल नहो
तेरे सकल बेकल सकल कल प्रांत में भी कल हो
उस दीन के तुम बंधु हो बल हीन की प्रभु शक्ति हो
अशरण शरण भव भय हरण तुम ज्ञान कर्म सुभक्ति हो

यह प्रार्थना अपनी आत्मा या ईश्वर से अवश्य करें
|धर्म स्वतः पर्लाक्षित होने लगेगा |

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