Friday, June 26, 2009

दूसरों की समस्याओं में सहायता करें ,मजाक न उडाये

दूसरों की समस्याओं में सहायता करें ,मजाक न उडाये

समर शेष हैं नहीं का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ है समय लिखेगा उसका भी अपराध
जीवन संग्राम है और यहाँ हर ,सम्बन्ध और परिस्थितियाँ आपको यही समझाती है कि मानवीय मूल्यों की रक्षा करते रहें तथा अपने आचार और विचार के बारे में सोच कर उसे परिष्कृत करते रहें |बहुधा यह देखने में आता है की यदि किसी एक व्यक्ति पर कोई बड़ी समस्या आजाती है तो हम उसकी सहायता के वजाय उसकी मजाक उड़ाने लगते है ,या पूरा जोर उसे दोषी बताने में लगा देते है ,यह जीवन का पहला पक्ष है की यातना झेल रहा व्यक्ति दोषी है

दूसरा पक्ष यह की हम उस समस्या से अपने को एवं अपने परिजनों को बचा कर यह सोचने लगते है कि यह समस्या हमारी नही है ,तो हम क्यो सोचे इस पर, उसे ही निपटने दो ,जिसकी यह समस्या है |
हिन्दी साहित्य के दर्शन में इन पंक्तियों में जीवन सार छुपा था कि आप यदि दूसरों के दुःख में दुखी होकर उनकी सहायता नही करेंगे तो वह दिन दूर नहीं कि आप को भी वैसी ही समस्याओं को झेलना होगा फिर आपकी अकर्मण्यता आपके लिए ही एक शाप बन जायेगी |

आदमी ने जन्म से ही एक दूसरे का सहयोग और समूह की मानसिकता में स्वयं को ढालना ,
एवं सुख - दुःख की भावना को समूह में बंटाना सीखा था उसकी खुशी दुःख एवं सारी स्थितियां दूसरों की स्थिति पर टिकी थी |अंहकार ,गर्व ,जीत, हार ,सुख ,लाभ और हर वह स्थिति जिसमे वो स्वयं को बड़ा समझता था वह दूसरों से तुलना कॉ ही विषय था |इस तुलना में वह अपने आप को श्रेष्ठ सिद्ध करके जीत की खुशी हासिल करना चाहता था |अब आप ही विचार करे की जिन लोगों पर आपकी खुशी दुःख और हार चीज आश्रित थी वे छोटे कैसे हो सकते थे |परन्तु समय की गति ने आदमी को केवल आत्म केंद्रित करके रखदिया उसमे से भावना ही ख़त्म करदी जो दूसरों की ओर सोच पाती अर्थात समय के साथ वह पूर्ण स्वार्थी होकर जीने कॉ आदी हो गया |

एक लंबे समय तक अपने हिसाब ओर स्वार्थी रहने के बादउसकी शान्ति ,सब्र संतोष और भविष्य के प्रति सोच ऋणात्मकता लेने लगी उसे लगा की वह अकेला और आधार हीन है ,उसे सहारों की जरूरत महसूस होने लगी और वह मानसिक तौर पर बिना बाजी खेले ही अपनी हार स्वीकार करने को तैयार हो गया ,यह भी तो मानवीय मूल्यों के लिए अभिशाप ही था |यह सब उसका ही बोया हुआ था और उसे ही काटना था इसे |उसने दूसरों के दर्द कॉ एहसास किया ही नही वह तो केवल उनके दुखों से भी आनंद की अनुभूतियाँ खादी करता रहा ,फिर वह उन लोगों से मदद और सहयोग की आशा कैसे करता यह प्रश्न चिह्न था |

आज पुनर्चिन्तन के इस छण में आवश्यकता इस बात की है कि हम अपनी पुरातन सोच से फिर जुड़े ,मै

मानता हूँ कि विकास और तेजी से भागती जिंदगी पर समय नही है मगर यहाँ केवल मन की आवश्यकता है जो दूसरों के लिए भी समय निकाल सके उन्हें भी सहायता के समय आपसे जोड़ सके |
धर्म संस्कृति ,मूल्य और भारत की पुरानी परम्पराएं खोखले आदर्श नहीं है वर्ण उनमे जीवन की सफलता के बड़े सूत्र छिपे हैं|
सब नर करहि परस्पर प्रीती ,चलहि स्वधर्म निरति श्रुति रीति

अर्थात उस काल में सब मनुष्य एक दूसरे से अविरल प्रेम करते और अपने अपने धर्म और कार्यों से जुड़ कर समाज की कल्पना कर रहे थे वे एक दूसरे के लिए जीवन कॉ मायने बने रहते थे और यही था वो राम राज्य या यों कहिये कि समाज कॉ समस्या रहित स्वरुप |आज हमे अपने साथ अपने समाज के सुख दुःख कि भी कल्पना करनी है जिससे हमारा भविष्य हार ग्लानि और अशांति के स्थान पर पूर्ण शान्ति और सौहार्द कॉ मायने बन सके |


शेष फिर


2 comments:

Girish Kumar Billore said...

Dr. Sahab adbhut aalekh

drakbajpai said...

thanks for this please grow my conf.

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