Wednesday, June 3, 2009

सम्बन्ध और उनका सार

सम्बन्ध और उनका सार संबंध काल से आदमी के मष्तिष्क मे यह प्रश्न उठता रहा की वह जीवन मे रिश्तो और संबंधो का एक ऐसा ताना बना बुने जिसमे सम्बन्ध अपने पूर्ण रूप में जीवन की सार्थकता दिखा सके उसके अन्तः करण पर भविष्य का भय उन्नत और सहयोगी संबंधो की छाप तथा जीवन के हर पल को सहयोग और दिशा निर्देशन की आवश्यकता दिखाई है उसे अपने उपर अविश्वास होता है उसकी यह धारणा ज्यादा प्रबल होजाती हैकि उसका जीवन उसके अपनो के बिना अधूरा है उसकी सम्पूर्ण क्रिया शीलता में अपनो का सहयोग आवश्यक जन्म से उसे माता पिता भाई बहन और वसीयत में मिले संबंधो की कहानी को दोहराना होता है जिनके बारेमें सुना देखा या मनन किया होता है साहित्य के आदर्शो के प्रतिरूप उसे कहानी के मुख्या नायक से अपनी तुलना कर उसे अपने मूल्यों के समकक्ष बनने की चाह रखता है उसके मन मष्तिष्क मई यह बात ज्यादा एहमियत रखने लगाती है की शायद उसका जीवन उन संबंधो के बिना अधूरा ही होगा और इसी तरह की भ्रमात्मक स्थिति मई उसका बहुत बड़ा समय चक्र निकल जाता है

समय तेजी से भाग रहा होता है संबंधो के मायने बदल रहे होते है और साथ साथ उनकी इच्छाये और मांगे बढ रही होती है साथ ही चलते चलते जीवन की थकावट को किसी छाया की आवश्यकता महसूस होने लगती है और वह स्वयं को बहुत कमजोर और असहाय समझ बैठता है और सम्बन्ध और अधिक प्रबल होकर उसका शोषण करने लगते है पिता के पित्र ऋण से आबद्ध माँ समाज और समय के साथ उसका पुरा ध्यान वर्तमान की उपलब्धियों पर लग जाता है मूल्य हार गए होते है संबध छिन्न भिन्न होकर बिखरने लगते है और उसके अपने ही उसके जिंदा होने के सबूत मँगाने लगते है पुत्र पत्नी भाई बहन एक शोषक बन कर उसके आलोचक बन बैठते है और जीवन प्रश्न चिन्ह बन कर यह समझाने की कोशिश करने लगता है की उसकी सभी धारणाये ग़लत साबित हो गई है जो जीतेजी पिता पति या पत्नी का दायित्व नही निभा पाया वह उसकी मृत्यु के बाद उसकी आलोचना और उसकी अकूत संपत्ति को अपने हिस्से में लाने का प्रयत्न करने लगा शायद उसे यह मालूम नही था की एस स्वतंत्रता का बहुत बड़ा मूल्य उनकी पीदियों को ही चुकाना होगा ईश्वर एसे पुत्र और पत्नी या सम्बन्ध किसी को नादे जो जीवन अवं म्रत्यु के भावो से भी स्वतंत्रता और संपत्ति मे अधिकार माँगने लगे जिसकी ज़िंदगी हमेशा यह इंतज़ार करती रही की उसके अपने उसे अपनत्व दे मगर वहा भी उसे हारना पड़ा भविष्य के गर्त मे उस आत्मा का न्याय छिपा है आत्मा और पृकृति के न्याय मे क्षमा होती ही कहा है और संबध बेमानी होजाते है कमोवेश यही संबधो की अंतर्व्यथा है और उनसे ही उबार कर हमे अपने आप को जीवन दायिनी शक्ति अपरिग्रह का सहारा लेना है आदमी में वह अपरमित शक्ति है जो जीवन की धार को बलपूर्वक मोड़ सकती है ध्यान देने वाली बात यह है कि हम अपेक्षा रहित हो हेर गतिविधि पर ईश्वर कि नज़र है इसका ध्यान रखे तथा केवल स्वयम के बल पर भरोसा कर एकला चलो के मार्ग का अनुशरण करे तो शायद संबधो और समाज तथा दुनिया में तुम अजेय हो सकते हो

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