Monday, June 15, 2009

प्रेम

प्रेम

प्रेम

अनादि काल से इंसान के मष्तिष्क में यह प्रश्न उठता रहा की वह कोंन ही विषय स्थिति है जो मानवीय अस्तित्व को अमर और शाश्वत बनाए रखती है |जन्म के समय से ही उसने अपने आस पास सहज प्रेम की अनुभूति की थी और उसका विकास भी उसी परिवेश में हुआ था |उसने चंदा मामा सूर्य और प्रकृति के प्रेम को अपनी अबोधावस्था में बहुत पास से देखा,अनुभव किया था |तोता, मैना, कौओ,कबूतरों को पकड़ने का प्रयास और उने देने की जिद उसने बहुत की थी |कई बार चींटी चीटों के साथ खेलना नन्हीं सी मखमल की गुड़िया और जुगनू छोटे छोटे हाथो में बंद कर उन्हें रखे रहना तथा अनेक खेलो के प्रयोजनयही सिद्ध करते थे की वह ईश्वर के घर से एक अमर प्रेम लेकर चला था और वही उसके भविष्य का सत्य होना चाहिए था

प्रकृति ने मानव को यही सिखाया कि प्रेम का रूप आकार प्रकारअनंत की सीमा से भी परे है |कवियों और साहित्य के शब्द बोने पड़ जाते है ,चिंतन और विचारों की दूरी साथ नही दे पाती मन मष्तिष्क इस परिभाषा को उम्र भर समझाने की चेष्टा करता रहता है और उस अनंत को अपने अनुसार ही समझ पाता है |प्रकृति ने मनुष्य को परिवरिश दी ,सूर्य ने उसे जीवन बचाए रखने का उपहार दिया ,हवाओं ने उसे जीवन संरचना की गति, साँसे दी ,मिटटी ने उसे जीवन बनाए रखने के लिए उपज दी,और अन्तरिक्ष ने उसे अनंत तक की नई परिभाषायेदी |

समय और परिवर्तन तेजी से चल रहे थे ,पाश्चात्य संगीत और विकास की दोड़ में हमारी भी रूचि थी |हम सारी उपलब्धियां चाहते थे |स्कूल, कॉलेज और ट्रेनिग सेंटर को - एजूकेशन के माहोल में थिरक रहे थे |फ्रैंड कल्चर स्तर का प्रश्न बन गया था ,खुले और स्वतंत्र विचारों का प्रयोग शर्म ,तहजीब और सादगी के विपरीत नंगे पन की सीमा तक था |हमे ये सब अच्छा लग रहा था क्योकि हम परम्परावादी विचार और बंधनों से अभी अभी मुक्त हुए थे |समाज नए युग के नशे में था ,और हमारी सोच में घर वालो की नसीहतें थी की अपना स्वार्थ निकालने के लिए कुछ भी करो कैसे भी, नकली संबध खड़े कर लो ,समय ने इस आग मै घी का काम किया और पूरा व्यक्तित्व प्रेम रहित होकर काम निकालने का नाटक बन गया |समय और परिस्थिति ने मुझे और अधिक परिष्कृत करके इस खेल का महा नायक बना दिया और मेरा पूरा अस्तित्व नाटक, छलावा और बहरूपिया हो गया जिसके आसुओं में भी काम निकालने की कला थी |

इन सब विषय स्थितियों वह पलने के बाद वह धीरे धीरे बड़ा होने लगा परिवार के वातावरण के हिसाब से उसने व्यवहार चालू कर दिया था ,पहले तो उसने दुनिया की हर चीज़ से अधिकता की पराकाष्ठा तक प्रेम किया मगर धीरे धीरे उसने परिवार और अपनो के बीच के मतभेद भी समझे | वो परिवार और अपने कल तक जो निर्विकार और पूर्ण भाव से केवल प्रेम दे रहेथे वेआज अपनो परायों और समाज का मूल्यांकन कर यह बताने लगे कि
किसको कितना और किस हिसाब से प्यार बंटाना है |किसको देखकर हसना है, किसको देखकर चुप होजाना है ,और किसको कितना महत्व देना है |प्रकृति और इंसानियत का मूल मंत्र कलयुग के दुर्विचार का शिकार होगया था | हम परिवार एवं अपनों की मिलकियत बन बैठे थे हमारा मन मष्तिष्क गुलाम और ग़लत दिशामे अपना रूप लेरहा था, मगर इस उम्र मी हमें इन सबकी परवाह ही कहाँ थी |धीरे धीरे यही हमारा अस्तित्व बन गई और घर एवं अपनों के व्यवहार के स्वार्थ,फरेब झूठ और कृत्रिम व्यवहार हमने उनसे भी अच्छी तरह सीख लिया क्योकि हमारी ग्रहण शक्ति अद्वतीय थी |

आज मै सबसे अलग जीवन जी रहा हूँ |मेरे अपने नियम और आदर्श हैऔर में दुनिया को अपने हिसाब से चलता हुआ देखना चाहता हूँ ये मेरे अहम् की संतुष्टी के लिए परमावश्यक है |और कुछ लोग साथ रहे पुराने रिश्ते शनै शनै दूर होते गए और मेरी उपलब्धियां सारी सीमायें छोड़ कर मुझे सफलता और विकास का उत्कृष्ट मान बैठी में कुछ ही समय में संपत्ति सफलताओं और धन और वैभव का एक बड़ा ढेर बन गया और समाज अपनो के साथ एक बनावटी परिवेश में मिलने लगा |शायद यही मेरे जीवन के चिह्न बन गए थे |

समय के साथ खाली पन बदने लगा ,पत्नी, रिश्ते,और मेरे अपने दूर होगये थे उन्होंने अपना अपना ठिकाना ढूढ़ लिया था |उनपर मेरे लिए मेरा ही पैदा किया हुआ आडम्बर चरित्र था और उनसे अब सच्चे प्रेम की कामना करना बेकार था बच्चे मेरे वैभव से परिपूर्ण विदेशों में थे ,उनकी जीवन से यही शिकायत थी की मैंने कभी उन्हें समय नही दिया बाप का फ़र्ज़ पूरा नही किया आज वे भी सफलता के उत्कर्ष पर मेरे प्रतिद्वंदी हो गए थे |आज मुझे प्रेम के विराट पल याद आरहे थे ,मेरा मन क्लांत और निराश था |शायद वैभव ,धन और बचपन की सींखे मुझे अपराध बोध सी जान पड़ती थी और मै सबसे घिरा होने के बाद भी नितांत अकेला रह गया था |

प्रेम अनुभूति था ,वही ईश्वर का वास्तविक स्वरुप था ,उसकी सीमा ही कहाँ थी |वह तो असीम अबूझा और तन मन की सीमा से कही परे था |उसमें कुछ पाने की चाह ही कहाँ थी वह तो सब कुछ लुटाने को था ,यही तो दीवानगी थी जिसमे वह अपने यार को ईश्वर जैसा मन बैठता है और उसके एक इशारे पर सर्वस्व लुटा डालता है|यही है सहज प्रेम और इसमें ही ईश्वर निवास करता है |धर्म, साहित्य ,और दर्शन जिस सरल विधा से संसार जीत पाये थे वह यही प्रेम था शाश्वत ,चिरंतन ,अनंत और पूर्ण |यही ब्रह्मांड का एकमात्र सत्य था निर्विकार ,निर्विचार और अगाध किंतु सहज प्रेम

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