Tuesday, July 28, 2009

सीख दें,मगर यहाँ सोच कर कि यही आपका भविष्य है

प्रत्यक्ष अनुभव का सत्य और मेरे प्रश्न

माँ, स्कूल और हमारे अपने किसी भी इंसान कि पहली पाठ शाला होती है ,जहाँ से बाल्य काल में बच्चा जीवन मूल्यों कि पहली शुरुआत करता है यहीं से उसके मन के आधार बनते और बिगड़ते है बच्चे सबसे अधिक प्रभाव उसकी माँ का पड़ता है ,और वह उसके अनुसार ही अपनी जीवन धारणाये बनाने लगता है सामान्यत: माँ अपने व्यवहार और जीवन शैली के अनुरूप बच्चे को नवीन ज्ञान से अवगत कराती है ,वह यह जानती है कि कल उसके मूल्य और आदर्श बच्चेको ही समाज में लेजाने होंगे मेरा मानना है कि यही संस्कार किसी समाज के उत्थान के लिए विशेष भूमिका अदा करते है
यहाँ मै उस माँ उस स्कूल उस अपने की बात कर रहा हूँ जो अपने स्वार्थों और कुछ थोड़ी सी वाह वाही केलिए बच्चो कि जिंदगी दांव पर लगाए बैठी है, उनका नकारात्मक व्यवहार बच्चे सीख रहे है और शायद वे इसे अपनी बहुत बड़ी उपलब्धि मान रहे है जबकि इसके परिणाम भुगतने के लिए वेही इसके मुख्य पात्र होंगे, वे इस सत्य को मानाने को तैयार नहीं है
आज हम जिस युग में है वहां हर स्तर पर केवल प्रतियोगिता रहगई है और हर आदमी अपने को श्रेष्ठ साबित करने में दूसरे को छोटा बनाने का प्रयास कर रहा है ,चाहे वह पिता हो या अन्य संबन्धी उनके लिए केवल यह महत्व पूर्ण है कि वे अपने आप कोश्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए किसी की चरित्र हत्या ,अपमान झूठी कहानियाँ , और नयी नयी कमियाँ बता कर स्वयं को श्रेष्ठ बताने का प्रयास करते रहें बच्चो के अबोध मन पर इसका कोई मान दंड नहीं है की यह झूठ और नकारात्मक सत्य भी हो सकता है पिता के परिश्रम से कमाए धन से पढ़े लिखे योग्य बच्चे पिता कॉ ही तिरस्कार करने लगे तो त्रुटी का जिम्मेदार कौन होगा ,केवल माँ ही इसके लिए दायी है
वर्त्तमान में आज बदलते समय के साथ जब सब कुछ प्रोफेशनल होगया है वहां एक नयी शुरुआत दिखाई देरही है कि माँ ही बच्चे को शैशव काल से ही अपने परायों काभेद बताने लगी है ,पिता से अधिक स्नेह शील बनने के चक्कर में उसने पिता कि तमाम कमियों को उजागर कर बच्चो को अपनी और लेने का प्रयास अवश्य किया है ,परिणाम प्रत्यक्ष होने लगे बच्चों को संपत्ति ,बटवारे ,साधनों का वास्ता ,तथा हर पल एक नयी कसम देकर विश्वास दिलाया गया की केवल यही सत्य है ,उनका सच्चा हितैषी शायद कोई है ही नही ,इन सब बातों से भ्रमित बच्चों ने पिता को जीवन भर तिरस्कृत रखा ,संबंधों में केवल वेलोग थे जो उनके रक्त संबन्धी थे ,वे सबसे कट कर अपने निजी स्वार्थों के लिए जीने के आदी भी हो गए केवल उनका सम्बन्ध माँ और उनके मातृ परिवार से रहगया दुःख ,मृत्यु , और यातनाएं चाहे पिता या उनके परिवार से सम्बंधित हुई वह भी उनके शोक का विषय नहीं बन पाई उनमे भी वे और संपत्ति का बँटवारा देखते रहे पिता के संबंधों के दुःख की तो बात शायद उनके लिए केवल तुलना सुख और अपने अहम् की तुष्टि का विषय था अपार धन पर बैठने के बाद भी वे हमेशा निर्धन और सहानुभूति की भीख माँगते दिखे ,बच्चे इस व्यवहार को भी अच्छे से सीखते रहे पित्र ऋण और समाज और संबंधों को परखने की दृष्टी उनकी अपनी ही माँ ने उनसे छीन ली थी वे अन्धानुकरण में पिता और उनके परिवार को न्याय देना ही भूल गए थे कैसी विडम्बना है की जिसका जीवन और मृत्युदौनों तिरस्कृत रही हो उसे मरने के बाद भी शान्ति कैसे मिलेगी यह प्रश्न चिह्न था?


आदमी लाइन नहीं है जिसे बार बार छोटा किया जा सके, तमाम संबंधों के साथ जीता हुआ आदमी समय के साथ अपने किए का ही फल भोगता है कुछ समय की शान्ति और बड़ा बनाने के लिए वह जिन मूल्यों को ध्वस्त करता है वे उसके जीवन काल में ही उसका मुंह चिडाने लगते है वह अपने चरित्र व्यक्तित्व और कमियों से बेखबर केवल आलोचना और नकारात्मक भाव का पर्याय बन जाते है बनावटी जवानी ,धन का घमंड ,और दुनिया को नीचा बता कर स्वयं को श्रेष्ठ बताने की कला भी एक दिन समय से हार कर ऐसा अभिशाप बन जाता है जो हर पल खून के आंसू रुलाता है उनके अपने सम्बन्ध मृत प्रायः हो जाते है और फिर उनसे वैमनस्यता ,घृणा और तिरस्कार सीखे बच्चे उनपर भी यही प्रयोग कर बैठते है औरसमय की फ़िल्म में एक बड़ा अपराध बोध उनका अन्तिम सत्य हो जाता है और हो भी क्यो न क्योकि उन्होंने समाज ,पिता ,और संबंधों को न्याय दिया ही कहाँ था


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