Sunday, July 12, 2009

आधुनिकता या खुले पन की सीमा तय करें

आधुनिकता या खुले पन की सीमा तय करें

आज हमारा समाज ख़ुद को आधुनिक बताने की चेष्टा में स्वयं भ्रमित है |बच्चों से वह हमेशा यह आकांक्षा करता रहा कि वे मूल्यों संस्कृति और वसीयत के कलेवर में लिपटे अपने जीवन को संयमित रूप से गुजारें और इसी बात के लिए उन्हें स्वयं को बार बार सिद्ध करना होता है जबकि हम अपनी और समाज की क्रियान्वयानता और चिंतन पर कुछ सोच ही नहीं पाते |आज नई पीढी में जो कुछ हमे जो कुछ अच्छा नहीं लग रहा है ,जिसके हम आलोचक हैं, ये सब इस पीढी ने हम और हमारे समाज से ही सीखा है ,फिर बार बार उन्हें ही ग़लत क्यों ठहराया जा रहा है |बचपन से ही अपनी स्वतंत्रता नई सोच और नए परिवर्तन रखने कॉ दावा करने वाले विचार एकाएक परिवर्तित कैसे हो गए ,शायद हम अपने स्वयं के लिए बहुत उदार विचारों और ओपन माइंड की परिभाषा थे मगर अपने बहुत नजदीकी लोगों से अन्तर मन से यह अपेक्षा करते रहे की वे परम्परा वादी रहें बस यही सोच हमारे दौहरे व्यक्तित्व का पर्याय बन गई और जो प्रभाव नई पीढी को हम देना चाहते थे वे अपूर्ण और प्रभाव हीन हो गए |

अबोध शिशु का तोतली आवाज में गाली देना ,टीवी और संगीत की धुनों पर बेतहाशा डांस करना ,छोटी छोटी सी बात में झूठ बोलना ,डाकू और असामाजिक लोगों की नक़ल करना तथा विज्ञापनों के कलाकारों जैसे आवरण और आचार विचार बनाने की चेष्टा करने को जो मुक्त कंठ से सराहते थे ,आज वे ही इन सब चीजो को बहुत ग़लत और अशोभनीय मान रहें है |अब बताइये की कमी किसकी मानी जाए ?
दूसरी ओर हम अपने आपको नए अंदाज में प्रस्तुत करने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं ,उम्र ओर हार्मोनल परिवर्तन के इस दौर में हम सब कुछ प्रेक्टिकल करके देखना चाहते हैं ,हम उन चीजों के प्रति बहुत लालायित है कल तक जिन्हें परदे में ओर लाज शर्म ओर तहजीब के नाम पर छुपा के रखा जाता था ,ओर प्रयोग वादिता के इस दौर में हम उनका प्रयोग भी अपने गुणों ओर व्यक्तित्व के हिसाब से करने लगे ,परिणाम यह हुआ की हम संतोष के चरम को जीना चाहते थे मगर मन, भय ,अधूरा ज्ञान ,पुरातन सोच ,ओर सामजिक ताना बाना हमारे सहज संतोष में बाधक बना रहा |दूर दर्शन ,कंप्यूटर ,ओर उनपर बिछी लाखों साइटों ने हमारे दबे पिसे भावों को ओर अधिक प्रबल ओर उत्तेजनाओं से भर डाला ,हमसे ओर अधिक ओर अधिक की मांग करते हुए यह उम्मीद की गई की हम भी सुपर मेन की तरह अधिक शक्ति शाली दिखें यहाँ हम यह भूल गए कि जो हम कंप्यूटर या टीवी मे देख रहे थे वहा निरंतर वही दिखाता है जो हम देखना चाहते है मगर वहां उस दृश्य में समय थकावट ओर उकताहट नहीं दिखती जो हमें हतोत्साहित करती, वरन केवल एक अनवरत उत्साह दिखता है ,वहां प्रेम ,सौहार्द ,नर्म भावों की जगह केवल वीभत्सता ओर निर्दयता का चित्रण होता है ,ओर वाह रे विकास उसे हम आधुनिकता मानते है |फिर धीरे धीरे सबमे वृद्धि की आशा करते जाते है ओर स्वयं अपनी शान्ति धैर्य ओर बल खो बैठते है |फिर यह सब बड़ा अपराध बोध ओर बोझ जैसा लगाने लगता है ओर हमे तुष्टि के स्थान पर केवल चिड चिडा पन ओर क्रोध सहना पड़ता है ख़ुद पर |
आधुनिक संसाधनों ने एक ओर हमारी दबी पिसी मानसिकताओं को बड़ी बेरहमी से उभारा हम उनकी आपूर्तियों में यह भूल गए की हर क्रियान्वयन की सीमायें होती है ,हमारे साथ समय ओर निश्चित बल जुड़ा है ओर वह भी सीमा मय ही है |हमे अपने कर्म के बाद उसकी समाप्ति काभाव झेलना है ,ओर हमारी यह फ़िल्म एंड के बाद भी चालू रहना है अर्थात अब उसे वस्तिविकताओं की कड़वाहट से गुजरना होगा |
मित्रों जीवन जीना ताक़त बल ओर समय रहित उत्तेजना नहीं है बल्कि वह तो एक परिष्कृत कला है ,जिसमे आदमी को वास्तविकताओं में जीते हुए अपने आपको संतोष के चरम पर लेजाना होता है| क्रिया ओर क्रियाओं के बाद भी एक बड़े प्रेम ,सौहार्द ओर भविष्य के प्रति ओर अधिक आशान्वित होना यही इस कला का उत्कृष्ट बिन्दु है ,यहाँ सम्पूर्ण जीवन पूरे जोश ओर खुशी का मायने होता है ,यहाँ आपको विकास ओर स्वर्णिम भविष्य देने की चाह होती है यहाँ बिना कुछ मांगे सम्पूर्ण समर्पण होता है एक ऐसा समर्पण जिसमे जीवन का हर कर्म स्वतः धर्म बन जाता है |यही है भारतीय उपभोग वाद का धार्मिक ओर साँस्कृतिक पहलू |
समय की मान्यताओं में हम जब तक आग में नई नई विधियों से आहुति डालते रहेंगे आग शांत नहीं होगी ,हम उपयोग वाद के सिद्धांत पर केवल कुछ समय थोड़े बल ओर परिश्रम के साथ जीवन को पहचानने की कोशिश करें फिल्मी कहानियों ओर चित्रों का अनुशरण करने से पहले ये समझ ले कि जो हमे ये सब दिखा रहा है वो समय ,बल , ओर काल्पनिक या बे जान साधन है जबकि आप पर एक सवेदन शील मन है जो आपको हर क्रिया पर + ओर -ठहरा रहा है आपको अपनी सीमाए तय कर जीवन के बड़े उत्सव की तैय्यारी करनी है|
शेष फिर

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