Sunday, June 28, 2009

पूर्ण सफलता और संतोष के लिए जीवन की प्राथमिकता पहले तय करें

पूर्ण सफलता और संतोष के लिए जीवन की प्राथमिकता पहले तय करें

जन्म के समय मै रोया नहीं डॉक्टर और सब परेशान थे ,कही कोई अनहोनी बच्चे के साथ और उसकी माँ के साथ हो जाए ,प्रयास किए गए मुझे उल्टा करके थपथपाया (मारा)गया और उन प्रयासों से मै रोने लगा |परन्तु मुझे बाद मै समझ आया की मै अपनी भूख और आवश्यकताओं के लिए रो रहा था , और कब ये आवश्यकताएं मेरी जरूरत बन कर बड़ी बड़ी महत्वाकांक्षाओं में बदल गई मै समझ ही नहीं पाया |मानव के जन्म से ही यह स्थिति बनने लगती है जिनसे ताल मेल बिठा कर हम अपनी आवश्यकताओं और महत्वाकांक्षाओं का ऐसा जाल अनजाने मे बचपन से बुन लेते है जिसकी आपूर्तियों केलिए हम जीवन भर केवल समायोजन ही करते रहते है और यही हमारे लिए दुःख और असंतोष का कारण बन बैठता है |

जीवन बहुत ही संवेदन शील विषय है |यहाँ हर कार्य की तुलना में कई गुनी प्रतिक्रियाएं होती है ,क्योकि हम गति शील परिस्थितियों से जुड़े लोगो की बात करते है |यहाँ हर सार्थक कार्य पर हम धनात्मक होकर पुरस्कृत होते है वही अपनी हर त्रुटि पर हमे बहुत ज्यादा सजाएं मिलती है क्योकी जीवन जिस प्रकृति पर आधारित है उसमे क्षमा है ही नहीं |अर्थात जीवन जीना जिस कला का नाम है उसका हर कदम फूँक फूँक कर और सोच कर ही रखना होगा |यदि हम अपने इस प्रयोजन मे सफल हुए तो निश्चित रूप से हमारा जीवन अवं हमारी मृत्यु दोनों ही सार्थक हो जायेंगी और हम जीवन पर गर्व कर सकेंगे |ध्यान रहे जिसका जीवन सफल रहा मृत्यु उसकी ही सफल होगी अतैव जीवन के हर कर्तव्य दायित्व और अधिकार को पूर्ण भाव से जीना चाहिए |

अब यह महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि जीवन कि प्राथमिकतायें तय कर उनपर द्रणता से अमल किया जाए
औरउसके लिए आवश्यकता है स्वयं के आत्म नियंत्रण की |मै यहाँ कुछ सुझाव प्रेषित कर रहा हूँ शायद कही यदि एक भी बिन्दु काम आया तो मै अपने इस कार्य की सार्थकता समझूंगा |

  1. अपनेजीवन के आधारभूत लक्ष्य`और आदर्श बनाइये और उनके क्रियान्वयन के लिए हर रोज एक नियत समय विचार कीजिये |
  2. समय सारणी बना कर स्वयम को कार्यों में लगाए अन्यथा हर काम समय के बाद होगा जो पूर्ण संतोष का सुख छीन लेगा ,यदि आपको हर सफलता समय के बाद मिली है तो आज से ही आपको समय के साथ समायोजन कर चलने का संकल्प करना चाहिए |जीवन में सबसे ज्यादा बहुमूल्य समय ही तो था |
  3. एक कठोर किंतु मन पसंद अनुशासन बनाए और कोशिश हो कि हम उसका पालन कर पायें और समयानुसार इस पर विचार करते रहे |
  4. भोतिक साधनों कि आपूर्ति जीवन के लिए एक सीमा तक आवश्यक है कही ये आपूर्ति आपके लक्ष्य और आदर्शों के विपरीत होकर आपका ही उपयोग ना करने लगे |धन वैभव और भोतिक आपूर्तियाँ आपको शरीर समाज और स्तर में ऊंचा दिखा सकती है मगर धन केवल शरीर को सुख दे सकता है मगर मन के सुख के लिए धन और आपके लक्ष्य और आदर्शों के सयोग कि पूर्ति होनी चाहिए|
  5. ज्ञान ,स्तर और विवाह जीवन के अकाट्य क्रम रहे है जिसने भी इसके क्रम को तोड़ने कि कोशिश की वह स्वयं उसके लिए बड़ी समस्या बन गया है |पहले श्रेष्ठ ज्ञान और आधुनिक व वैज्ञानिक सोच, और विद्यार्थी बन करअध्ययन में गहरी पकड़ बनाए ,यदि यह कार्य पूर्ण हुआ तो अच्छा जॉब आपको स्वतः अच्छा स्तर देगा और स्तर के बाद आपका विवाह आपके जीवन की आपूर्ति में धनात्मक योगदान देगा |
  • आपकी प्राथमिकताओं में वर्तमान का क्रियान्वयन अतीत के सबक और भविष्य की स्वर्णिम योजना होनी चाहिए साथ ही उसे कड़ी मेहनत से जीतने कॉ संकल्प भी महत्व पूर्ण है |
  • जीवन के लिए व्यक्ति ,सामायिक आपूर्तियों के साधनों ,और छोटे लक्ष्य बनाना सबसे बड़ा अपराध माना गया है आप लक्ष्य इतना बडा बनाए कि जिसमे आपके सारे स्वप्न और आदर्श समां सकें|
हमारी प्राथमिकताएं बहुत बड़े स्वरुप में हमे प्रेरित करती रहती है कार्यों की सही दिशा केलिए यदि उनका सफल और समय बद्ध तरीके से क्रियान्वयन सम्भव हुआ तो हमारी सफलता पूर्व से निश्चित हो जाती है |जब हम रोते नही है तो रुलाकर हमे जगाया जाता है और जब हम कुछ सीखना चाहते है तो हमेंअपने अपने आचरण के अनुरूप व्यवहार सिखाया जाता है जबकि हमारे जीवन की समस्यायें ,लक्ष्य और दिशा सब अलग ही होती है|

आज इस विषय के निष्कर्ष पर यही कह सकते है कि जीवन की प्राथमिकताएं तय करें ध्यान रखें जब कभी भी आप जीवन की सार्थक पहल आरम्भ करेंगे तो निश्चित ही अनेक समस्याये और अनेक ऋणात्मक विचारों वाले लोग ,समय और व्यवधान बनकर आपका मार्ग रोकने कि कोशिश करेंगे मगर आपको जीतना है |आप जीवन कि बाजी के अकेले विजेता है| येभाव एक बार पैदा करके तो देखें फिर सब कुछ आपके लिए सम्भव है और आपही मानवीयता को एक नयी दिशा देंगे |

शेष फिर

Friday, June 26, 2009

दूसरों की समस्याओं में सहायता करें ,मजाक न उडाये

दूसरों की समस्याओं में सहायता करें ,मजाक न उडाये

समर शेष हैं नहीं का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ है समय लिखेगा उसका भी अपराध
जीवन संग्राम है और यहाँ हर ,सम्बन्ध और परिस्थितियाँ आपको यही समझाती है कि मानवीय मूल्यों की रक्षा करते रहें तथा अपने आचार और विचार के बारे में सोच कर उसे परिष्कृत करते रहें |बहुधा यह देखने में आता है की यदि किसी एक व्यक्ति पर कोई बड़ी समस्या आजाती है तो हम उसकी सहायता के वजाय उसकी मजाक उड़ाने लगते है ,या पूरा जोर उसे दोषी बताने में लगा देते है ,यह जीवन का पहला पक्ष है की यातना झेल रहा व्यक्ति दोषी है

दूसरा पक्ष यह की हम उस समस्या से अपने को एवं अपने परिजनों को बचा कर यह सोचने लगते है कि यह समस्या हमारी नही है ,तो हम क्यो सोचे इस पर, उसे ही निपटने दो ,जिसकी यह समस्या है |
हिन्दी साहित्य के दर्शन में इन पंक्तियों में जीवन सार छुपा था कि आप यदि दूसरों के दुःख में दुखी होकर उनकी सहायता नही करेंगे तो वह दिन दूर नहीं कि आप को भी वैसी ही समस्याओं को झेलना होगा फिर आपकी अकर्मण्यता आपके लिए ही एक शाप बन जायेगी |

आदमी ने जन्म से ही एक दूसरे का सहयोग और समूह की मानसिकता में स्वयं को ढालना ,
एवं सुख - दुःख की भावना को समूह में बंटाना सीखा था उसकी खुशी दुःख एवं सारी स्थितियां दूसरों की स्थिति पर टिकी थी |अंहकार ,गर्व ,जीत, हार ,सुख ,लाभ और हर वह स्थिति जिसमे वो स्वयं को बड़ा समझता था वह दूसरों से तुलना कॉ ही विषय था |इस तुलना में वह अपने आप को श्रेष्ठ सिद्ध करके जीत की खुशी हासिल करना चाहता था |अब आप ही विचार करे की जिन लोगों पर आपकी खुशी दुःख और हार चीज आश्रित थी वे छोटे कैसे हो सकते थे |परन्तु समय की गति ने आदमी को केवल आत्म केंद्रित करके रखदिया उसमे से भावना ही ख़त्म करदी जो दूसरों की ओर सोच पाती अर्थात समय के साथ वह पूर्ण स्वार्थी होकर जीने कॉ आदी हो गया |

एक लंबे समय तक अपने हिसाब ओर स्वार्थी रहने के बादउसकी शान्ति ,सब्र संतोष और भविष्य के प्रति सोच ऋणात्मकता लेने लगी उसे लगा की वह अकेला और आधार हीन है ,उसे सहारों की जरूरत महसूस होने लगी और वह मानसिक तौर पर बिना बाजी खेले ही अपनी हार स्वीकार करने को तैयार हो गया ,यह भी तो मानवीय मूल्यों के लिए अभिशाप ही था |यह सब उसका ही बोया हुआ था और उसे ही काटना था इसे |उसने दूसरों के दर्द कॉ एहसास किया ही नही वह तो केवल उनके दुखों से भी आनंद की अनुभूतियाँ खादी करता रहा ,फिर वह उन लोगों से मदद और सहयोग की आशा कैसे करता यह प्रश्न चिह्न था |

आज पुनर्चिन्तन के इस छण में आवश्यकता इस बात की है कि हम अपनी पुरातन सोच से फिर जुड़े ,मै

मानता हूँ कि विकास और तेजी से भागती जिंदगी पर समय नही है मगर यहाँ केवल मन की आवश्यकता है जो दूसरों के लिए भी समय निकाल सके उन्हें भी सहायता के समय आपसे जोड़ सके |
धर्म संस्कृति ,मूल्य और भारत की पुरानी परम्पराएं खोखले आदर्श नहीं है वर्ण उनमे जीवन की सफलता के बड़े सूत्र छिपे हैं|
सब नर करहि परस्पर प्रीती ,चलहि स्वधर्म निरति श्रुति रीति

अर्थात उस काल में सब मनुष्य एक दूसरे से अविरल प्रेम करते और अपने अपने धर्म और कार्यों से जुड़ कर समाज की कल्पना कर रहे थे वे एक दूसरे के लिए जीवन कॉ मायने बने रहते थे और यही था वो राम राज्य या यों कहिये कि समाज कॉ समस्या रहित स्वरुप |आज हमे अपने साथ अपने समाज के सुख दुःख कि भी कल्पना करनी है जिससे हमारा भविष्य हार ग्लानि और अशांति के स्थान पर पूर्ण शान्ति और सौहार्द कॉ मायने बन सके |


शेष फिर


Thursday, June 25, 2009

संस्कारों की स्थापना में आप महत्वपूर्ण हैं

चाहत संस्कार की

हर इंसान की यह प्रबल इच्छा होती है कि वह जिन लोगों से जुड़ा है ,वह जिस समाज और व्यवस्था में रहता है उससे सम्बंधित हर पक्ष सांस्कारिक नियमों से बंधा रहे ,वह नए मूल्यों और और आदर्श का प्रतीक बनारहे और उसकी विकास कि दौड़ लोग और समाज आदर्श मार्ग मान कर अनुशरण करते रहे |समय परिवेश ,विकास और प्रकृति कि हर चीज बदल रही होती है,परिवर्तन के चक्रो में घूमता आदमी किसी भी तरह अपने मूल्यों और संस्कारों को बचाने की फिक्र में रहता है |परवर्तन के अनुसार सब कुछ थोड़ा थोड़ा बदलने लगता है और सारी विषय स्थितियों के प्रभाव आदमी को अपने संस्कार में ही दिखाई पड़ने लगते हैं |

यह बहुत जरूरी भी था कि इंसान अपनी पीढियों को अपने से और अधिक विकसित देखना चाहता हैं ,उसके लिए वह हर सम्भव प्रयत्न करके भी उत्थान कि आकांक्षा रखता हैं |समय और परिवर्तन का असर व्यक्ति कि उम्र और परिवर्तनों कॉ समायोजन ही तो है |वह धीरे धीरे अपने घर के संस्कारों से स्कूल और समाज से जुड़ने लगता है ,उसके नए मित्र और उम्र की आरम्भिक सोच नई नई विषय वस्तुओं से प्रभावित होती रहती है ,वह नए युग के मानदंडों की ओर बदने लगता है यहाँ यह महत्वपूर्ण था अर्थात वह घर परिवार ,समाज ,राष्ट्र ओर नवीन परिवर्तनों से पूर्णत:प्रभावित होता है |

विज्ञान ओर धर्म यह बताता है कि व्यक्ति पर सबसे पहला प्रभाव उसकी माँ का पड़ता है वह उसके ही अनुरूप गुण अपने में पैदा कर लेता है येबात ओर है कि उनमें थोड़ा बहुत अन्तर आजाये |वह पिता के जींस से जुडा उसकी ही अनुकृति बनने कि कोशिश करता है ,क्योकिं इस समय तक वह समाज के सीधे संपर्क में नही आपाता है |उसके परिवर्तन प्रत्यक्ष ओर अप्रत्यक्ष तौर पर दिखाई देने लगते है ,स्कूल ,मित्रों ओर उसके ही वातावरण सेजुडे व्यक्ति उसकी मानसिकता में परिवर्तन आरम्भ कर देते है |पहले तो उसके अपने उसकी अच्छाइयों ओर बुराइयों पर खुश होते रहते है बाद में जब वह उसकी आदत बन जाती है तो परेशान हो उठते है |

मेरे मत मे संस्कारों के लिए हम जो प्रयत्न कर सकते है उनमें निम्न बिंदु महत्व पूर्ण है

  • जन्म के बाद ही माता पिता को संयमित व्यवहार करना चाहिए उसके सामने अबोध समझ कर ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए जिससे वह बड़ा होकर वही क्रिया करके सजा का पात्र बने |विज्ञान बताता है कि हर इंसान के मष्तिष्क में कई लाख सेल्स होते है ,वे क्रमबद्ध तरीके से कार्यकरते है |यह क्रम ४ या पॉँच समूहों में गति शील रहते है जैसे पहला समूह क्रिया शील रहने के बाद दूसरे समूह ने कार्य आरम्भ किया ,मगर यदि २५ या ३० वर्ष बाद प्रथम समूह के सेल्स क्रियाशील हुए तो वही भावनाएं उसमे बढ जायेंगी जो उसने उस वक्त देखा था |
  • नियम आदर्श ओर मूल्यों का विस्तार कर व्यक्ति से वैसे ही व्यवहार कि कि कल्पना करे ,परिवार का अनुशासन बनाए रखे ओर बाल्य काल से ही बच्चे को उसपर चलने कि आदत डाले
  • झूठ असत्य ओर धोखे के लिए बच्चे कॉ उपयोग न करे नही तो एक समय बाद यही उसकी आदत हो जाए गी ओर आप ही उसके असली जिम्मेदार माने जायेंगें |
  • नव परिवर्तनों के बारे में उसे समझाते रहना चाहिए उसकी अच्छाइयों बुराइयों से उसे अवगत करते रहने से उसमे प्रतिरोधक क्षमता जाग्रत होने लगाती है
  • स्कूल ओर शिक्षण संस्था आर ओर का चयन करते वक्त यह ध्यान रहना चाहिए कि वह अपनेसंस्कार ओर मूल्यों से दूर किसी ओर संस्कृति का मोहरा तो नही बन रहा ,हम बहुधा देखा देखी उस व्यवस्था का चयन कर बैठते है जहाँ विकास के साथ हमारे संस्कारों को समूल नष्ट किया जाता है |व्यक्ति की तीसरी पाठ शाला पर अपने स्वप्न के अनुरूप बल नही दिया जाता यह विचारणीय है |
  • उसके वातावरण ओर मित्रों की आदतों के बारे में आप समय समय पर विचार करते रहे तथा यथा सम्भव उनमे परिवर्तन करने का प्रयत्न करें |
  • सामाजिक बुराइयों से जीतने के लिए आपके अनुशासन ओर आदर्शों का क्रियान्वयन अति आवश्यक है |
  • समय परिस्थितियों में अपने आदर्शों ओर सत्य के मूल्यों की रक्षा करने के लिए सब में थोड़ा बहुत परिवर्तन करते रहें |
  • तेजी से बदलते समय में आप बच्छे को समय अवश्य दे जिससे वह बदलाव के दौर में अपने आप को बचा सके |
  • उसे सच ओर पारदर्शी बनाने के लिए पुरस्कृत करे चाहे उसमे आपको नुक्सान क्यो न हो |
उपरोक्त बहुत से उपाय आपके अपनों को शायद समय ओर बदलाव की आँधी से बचाने में सक्षम सिद्ध हों सबके साथ यह हमेशा ध्यान रखे कि बच्चे कि त्रुटियों पर परदा न डाले न ही उसमे कुछ एसा रहने दें जिसे उसे छुपाना पड़े शायद यही सत्य एक दिन उसे उच्चता के शिखर पर लेजायेगा जिसके लिए आपने जाने क्या क्या बलिदान किया था |

कोई हमारी समस्याओं को हल कर रहा है |

कोई हमारी समस्याओं को हल कर रहा है |

हम आधुनिक हो रहे थे पश्चिमी सभ्यता और विकास के नाम पर हमने दो चीजें खोई थी पहला विश्वास और दूसरा धैर्य | हम विकास की जटिलताओं में स्वयं इस तरह से उलझ गए की हम पर अपनी ही समस्याओं के हल नही थे ,जबकि हम जिनका अनुशरण कर रहे थे वे विकसित राष्ट्र हमसे अधिक विश्वास मय दिखाई दे रहे थे | वे हर समस्या के हल में अपने इष्ट के प्रति समर्पण का भाव लिए खड़े थे जबकि हम संस्कृति मूल्यों और अपनी परम्पराओं से उस इष्ट का अस्तित्व नकारते रहे बार बार उसे रुदिवादी ,अज्ञान- और अशिक्षा का नाम देकर स्वयं को बचाने की चेष्टा करते रहे जबकि हमारे अन्दर ही खोखले आदर्शों और मान्यताओं कि भरमार बनी रही |

I treat he cures
विज्ञान के विशुद्ध रूप में जिस पद्धति ने विश्व के परिवेश को सबसे ज्यादा प्रभावित कर पीड़ित मानवीयता को सहायता दी है उसे एलोपेथी के नाम से जाना गया वही पद्धति का जनक यह समझ गया कि वह केवल अपने ज्ञान और परिश्रम के सहारे इलाज कर रहा है जबकि किसी को ठीक करना और न ठीक करना उस महा शक्ति का काम है , जो सबको स्पंदन दे रही है |न्यूटन , सुकरात, टालस्टाय , विंची और अनेक एसे वैज्ञानिक और कलाकार हुए जो उस महा शक्ति की सत्ता के सामने नत मस्तक हुए और समय समय पर इतिहास ने ऐसे ऐसे उधाहरण दिए जो उस सत्ता को सिद्ध करने केलिए पर्याप्त थे परन्तु हम तथा कथित आधुनिक थे और स्वयं को हर काम का कर्ता मान बैठे ,तो हम ही अपने अपूर्ण व्यक्तित्व के लिए जिम्मेदार बन गए और हमारा जीवन ही एक बड़ा अपराध बोध बन गया जबकि हम केवल एक ऐसी कठपुतली थे जिसकी डोर किसी अज्ञात शक्ति द्वारा संचालित थी जिसमे सब कार्यो के लिए अलार्म फिट थे और जो स्वयं सबको समयानुसारऔर कर्म के अनुसार संचालित कर रही थी |

आदमी समस्याओं और कमियों का पुतला है वह जन्म से मृत्यु तक केवल एक विद्यार्थी ही रहता है और उसके हर कार्य में समय के हिसाब से नवीनता और कुशलता पैदा होती रहती है मगर स्वीकार्यता और अहम् की भावना उसे कुछ भी सीखने की कोशिश को हीन भावना के रूप में प्रर्दशित करती रहती है परिणाम समय ,परिस्थिति ,स्थान और उसकी अपनी कमियों से कई समस्यायें अपने आप खड़ी हो जाती है वह अकेला इन बड़ी समस्याओं को कैसे हल करता, यह उसके लिए बहुत बड़ा यक्ष प्रश्न बनजाता है और वह अपनी हर हार के लिए स्वयं दायी होता है उसे नियति और समय परिस्थितियों से बार बार हारना पड़ता है |

आदमी प्रकृति की अद्वतीय कृति है उसमे उसी के समान गुण भी है | समय समय पर उसके जीवन को लाभ ,हानि ,जे ,पराजय,जीवन म्रत्यु को करीब से देखना होता है ,अपनो द्वारा अपमानित और आहात किया जाता है ,जीवन को कई बार एक पूर्ण गति से चल रही बाजी की तरह देखना होता है और उसमे उसे अधिकांशतह हार का सामना करना होता है |हर हार पर उसकी शक्ति सामर्थ्य और अधिक परिश्रम से जीतने का भाव घुटन ,टूटन और निराशा मे बदल जाता है और वह जीवन के महत्व को ही खो बैठता है जिसमे ईश्वर यह कहता है कि मानव उसकी अद्वतीय कृति है |


सारांश यह है कि आदमी एक कर्ता का भाव लेकर चले तो वह अधिक सफल हो सकता है हर कार्य यदि उस महा शक्ति को समर्पित किया जाएगा तो पूर्ण भाव और कठिन परिश्रम के बाद यदि सफलता नही मिलती तो यह आदमी कि हार नही उस महा शक्ति कि हार होती है ,जबकि वह महा शक्ति हारती ही नही है |आदमी उस महा शक्ति का वह अणु है जो उससे ही संचालित होता है और उसे इसकी संचालन बेटरी को चार्ज करने के लिए २४ घंटों में एक बार अपनी कृति से अवश्य मिलना होता है ,इसी तरह वह हर समस्या कहल लेकर हमारे पास होता है लेकिन हम अहम् ,दिखावे ,और विश्वास कि कमी के कारण स्वायंभू बने रहते है जबकि उसकी अटल सत्ता से हमे सारे हल सहज सुलभ है


एक बार फिर हमे जरूरत है उस महासत्ता के अस्तित्व को नियमित और जाग्रत बनाए रहने की ,मेरा दावा है की उस महा सत्ता को आपकी सारी समस्यायें मालूम है और वह आपको नव प्रवर्तन का मार्ग देने को आतुर है ,अपना कठिन परिश्रम ,विश्वास ,धैर्य और सीखने की प्रवृति जाग्रत रखिये ,फिर देखिये चमत्कार |

शेष फिर

Tuesday, June 23, 2009

निर्णय करें मगर सावधानी से

निर्णय करें मगर सावधानी से

इंसान को हर पल निर्णय करना होता है |बचपन से अंत तक उसे कुछ न कुछ तय करना होता है और उसके तय किए मार्ग पर ही उसकी जीवन की रेल चल पाती है |उसके विकास और विनाश का द्वार यही से आरम्भ हो जाता है |हर निर्णय के पीछे उसकी उपलब्धियां और भय छिपा होता है और उसे ही इस भय पर विजय प्राप्त करना होता है |आरम्भ में उसके निर्णयों को माँ पिता और उसके आस पास के लोग दिशा देते है मगर धीरे धीरे उसे स्वयं यह ज्ञान होने लगता है कि शायद उसे निर्णय लेना आगया है|घर के अपनों द्वारा जिस दिशा के लिए जो मार्ग प्रशस्त किया गया था वह उसकी समझ मे नही आता मगर वह उसे ही अन्तिम सत्य समझाने लगता है |और उसका विकास क्रम इसी तरह बढ़ता जाता है अब वह अपनों परायों और उनके व्यवहार से निर्णय करने काआदी हो जाता है |

धीरे धीरे समय मान्यताएं ,ज्ञान समाज कि सोच विकसित होने लगाती है असीम ज्ञान भण्डार आदर्शों कि व्याख्या करने लगता है धर्म भय और उपहार का ज्ञान देने लगता है और व्यक्ति के निर्णयों को पर्याप्त रूप से प्रभावित भी करने लगता है |यहाँ वह हर पल अपने अस्तित्व कि लडाई लड़ता दिखाई देता है|वह यह सोचता है कि उसका अस्तित्व इस निर्णय से लाभान्वित होगा कि नही ,उसका अहम् ,सोच और उसे भय का सामना तो नही करना होगा ,ये सब प्रश्न उसके जीवन के निर्णयों को प्रभावित करते है|इससे भी अधिक प्रभाव समय परिस्थिति, उम्र और उसकी उपलब्धियों का पड़ता है वह निर्णयों को बहुत ज्यादा प्रभावित करने कि शक्ति रखती है |

उसके जीवन कि सफलता असफलता इस बात पर ही निर्भर करती है कि वह निर्णयों को सही समय और सही स्थान पर स्थापित कर पाया कि नही|उसके तीनों काल इस निर्णय कि विधा से ही बंधे दिखाई देते है सामान्यत उसके निर्णयों मे उसकी अपनी स्थिति ,परिवार की सोच ,आदर्श ,और भविष्य के प्रति विशवास का दर्शन होता है मगर उसकी आस्थाएं ,कठिन परिश्रम और उद्देश्य की स्पष्टता उसके निर्णयों में एक अद्वतीय शक्ति का संचार करने की क्षमता रखती है |

सारांश यह की जीवन का सबसे महत्व पूर्ण पहलू आदमी के निर्णय करने की कला ही है |यदि निर्णय कला है तो उसे और अधिक परिष्कृत करने की विधि भी होंगी |आज हम उन्ही निर्णयों को और अधिक ताक़त वर बना कर व्यक्ति को अधिक सफलतम बनने की चेष्टा कर रहे है |
देश काल परिस्थितियां और परिवेश अलग होसकता है ,मगर यदि निर्णय के आधार स्पष्ट और सुलझे हुए हुए तो निश्चित रूप से वे समाज देश और स्वयं हमारे अस्तित्व के लिए विकासोन्मुखी हो सकते है

जीवन एक ऐसा कार्य क्षेत्र है जहाँ हर क्रिया से कई गुनी प्रतिक्रया हमे झेलनी होती है क्योकिं इंसान अति गति शील विषय वस्तु है |प्रकृति के नियमों में क्षमा होती ही नही है हमारा एक ग़लत निर्णय हमारी संपूर्ण जीवन की दिशा शान्ति और संतोष छीनने के लिए काफी है,अतः हर निर्णय कुछ सिद्धांतों और धनात्मकता से लेने की आदत हमे अभी से डालनी होगी |

  • अपने लक्ष्य और आदर्श निर्धारित करें और यथा सम्भव उन्हें पूर्ण करने के लिए संकल्पित रहें |
  • निर्णय से पूर्व उसके बहुत से परिणामों के बारे में अवश्य विचार करें क्योकि परिणाम ही कार्य की गति को संचालित करते है
  • निर्णयों में वर्त्तमान ,भविष्य और अतीत के सबक को भी यद् रखना जरूरी है ,
  • निर्णय के पश्चात उसपर कुशल क्रियान्वयन की आवश्यकता महत्व पूर्ण होती है आप उस प्रक्रिया में स्वयं को श्रेष्ठ बनाये रखने का प्रयत्न अवश्य करे |
  • निर्णय का प्रभाव आपके अपनों को आहात करने वाला न हो अन्यथा आप स्वयं भी आहात हो सकते है यथा सम्भव आपको अपने पक्ष के लिए एक सशक्त भूमिका बना कर निर्णय लेना चाहिए जिससे सब आपके निर्णय की भावना समझ सकें |
देश ,काल ,परिस्थिति ,समय ,स्थान और अवसर के हिसाब से धनात्मक दृष्टिकोण रखने की आदत हमारे निर्णयों को अधिक सशक्त और पैना बनाती है हमें समय समय पर अपने से ज्यादा ज्ञान वाले लोगो से सलाह लेकर अपने निर्णयों को परिष्कृत बनाना चाहिए क्योकिं हर निर्णय से कोई न कोई प्रभावित अवश्य होता है और हमारे निर्णयों के प्रभाव से ऋणात्मक उर्जा का सृजन न हो वरन वह ऐसी धनात्मक वातावरण निर्मित करने वाली विषय स्थिति से जुडी हो जिसका प्रभाव संस्कार रूप में आदर्शों की वसीयतें बन कर खड़ा दिखाई दे|

शेष फिर

शून्य की सृष्टि विचारणीय

शून्य की सृष्टि विचारणीय



शून्य की सृष्टि विचारणीय के आरम्भ में कुछ भी तो नही था ,न भोतिक और न अभोतिक जीवन नही था केवल था शून्य और वही हर निर्माण का आधार भी रहा है शून्य यह बताता है कीउससे पूर्व कुछ नही है और उसके बाद सम्पूर्ण आरम्भ है वह जीवन से पहले भी विद्यमान था उसे जीवन के बाद भी रहना था और वह चिरंतन पृथ्वी के अस्तित्व से पहले भी सतत अस्तित्व मे था ब्रह्माण्ड का हर सत्य इस शून्य की iही देन है ,शून्य की स्थिति और उसका आकार और प्रकार सोच और बुद्धि से परेहै क्योकि वह विचार और कल्पना से भी परे है

Monday, June 22, 2009

शून्य के बाद सब था शून्य से पहले कुछ था ही नहीं ,वह अनादी सत्य था उसके बाद केवल निर्माण था वह एक ऐसा सत्य था जो सम्पूर्ण स्वरुप में विद्यमान था शून्य स्वयं प्रकाश का सुचालक बना खड़ा रहा ब्रह्माण्ड की हर शक्ति शून्य के तेज और गति से गतिशील है यही शून्य प्रति पल कुछ नया करने की चेष्टा भी करता है अर्थात जीवन के पूर्व और पश्चात जिसे साकार रूप में रहना था वह केवल शून्य ही था


धर्म और काम का अन्तिम बिन्दु यही शून्य था ,कृष्ण का निष्काम कर्म ,योग की परम गति भी यही शून्य थायोगी भाव शून्य होते रहे ,कामी अपनी रति मे उलझा शून्य के परम को दूढ़ता रहा ,और निष्काम कार्य में लगा मनुष्य हर कर्तव्य में शून्य भाव से जीता रहा उसे मालूम था कि वह कार्य के फल की चिंता से पीड़ित नही है


सारत;यही कहा जा सकता है कि योगी और भोगी का मूल भाव केवल शून्य से बधांरहता है और उसका हर प्रयत्न यही जानने को होता है कि आख़िर वह शून्य है क्या बलाशून्य पञ्च महा भूतों की वह अपरमित शक्ति है जो ब्रह्माण्ड को ओचित्य के हल तक लेजाती है, वही आदि सत्य का कारक भी है वही नव परिवर्तन का मूल भी है हमें आज इसी शून्य को जाग्रत करना है जिससे जीवन सुख अद्वतीय सुख की परिभाषा बन सके ,यह शून्य शरीर मन एवं वचन मे समाहित होकर जीवन को आनंद दे सके

Saturday, June 20, 2009

युवा को संस्कार और शक्ति की जरूरत , क्यों ?

युवा को संस्कार और शक्ति की जरूरत क्यों ?

मै अपना समय निकाल क़र कुछ देना चाहता था ,हर प्रबुद्ध यह आशा कर रहा था कि युवा ही तो भविष्य का कल है ,उसे ठीक और मजबूत रहना ही होगा |उसके जीवन की उन्नति ही तो हमारी सूखी आँखों की रौशनी थी और उसके मजबूत वक्ष पर ही हमे गर्व का अनुभव आज से करना था उसे ही राष्ट्र के सशक्त सहारे के रूप मै उसकी चिंता क्यों नही करता |

आज युवा के सामने अनगिनत चिनोतिया है उसे कई फ्रंटों पर एक साथ लड़ना पड़ रहा है और हेर कोई उससे यह आशा कर रहा है की वो हेर जगह अव्वल रहे ,मगर उसकी त्रासदी पर विचार करने का समय मेरे समाज पर है ही कहाँ |युवा की परवरिश और विकास जिन विषय स्थितियों में हुआ उसके लिए हम सब बराबर के दोषी थे मगर विडम्बना यह कि उसे ही बार बार अभिमन्यू कि तरह शहीद होना पड़ा |मै आज इस युवा के लिए चिंतित हूँ |

अतीत के पन्नों में झांककर हमे यह बताइये कि जब उसे हमारे संस्कारों कि जरूरत थी तो हम उसे आज़ादी और
के सब्ज बागों का सामान उपलब्ध करा रहे थे ,हम स्वयं तथा कथित आधुनिक होने की होड़ में थे ,संस्कारों की मान्यताएं हमे रुदिवादी सोच लगने लगी थी |हमारे परिवारों का विखंडन हो रहा था और हमारा भविष्य ये सब बखूबी से समझ रहा था |हम उसे मेड इन जापान चीन अमरीका इंग्लॅण्ड के सपने दिखा रहे थे और वही समान वह उपयोग में भी लारहा था |शायद हम पर उसके संस्कारों के लिए समय नही था हम सोचते थे जो गुण हममे है वे ही कमोवेश बच्चे मे होंगे और थोड़ा बहुत और आगे गया तो बाद मे देख लेंगे |
स्कूल में हमारे इस भविष्य को ढेर सारे डेज़ मिले किसी को फ्रंड्स डे कहा गया किसी को मदर या फादर डे और सभ्यता का विकास इतनी तेजी से हुआ की हमने संत वेलेनटाइन को सेक्स के अग्र दूत के रूप में प्रस्तुत कर डाला और उसके नाम पर हम केवल वासनाओं और शारीरिक सुख के खेलों की तरह उलझ कर रह गए कैसी विडम्बना थी ये |स्कूल के कोर्से में इंग्लिश मूल्यों की भरमार से सबका व्यक्तित्व तेजी से बदलने लगा

समाज वह निंदा सुख का सबसे बड़ा उदहारण था वह किसी न किसी व्यवस्थाको लेकर हमारे इस युवा का आलोचक बना रहा ,फिर उसे अपने स्वार्थी और मतलबी दोस्तों से भारतीय संस्कारों के अनुरूप उम्मीदें थी मगर वे तो आधुनिक सभ्यता के मित्र थे जो रूकना और फ़र्ज़ का अर्थ जानते ही नही थे |वहां भी वह छला गया मगर अन्दर ही अन्दर उसमे निराशा रिणात्मकता के भाव पनपने लगे और उसका अद्वतीय ज्ञान और विकास उसका साथ नहीं दे पाया |

आज मै सोचता हूँ की मेरा युवा एक सहज प्रेम और सोहार्द का वातावरण और एसे ही सम्बन्ध चाहता है मगर समाज और आधुनिक सोच पर इसके लिए समय नहीं है |आज निराकरण के लिए हम कुछ बिन्दु ले सकते है शायद वह एसे इस त्रासदी से कुछ हुड तक बचा सके |

  • यूवा को केवल अपनी अपरमित शक्ति को जगाना होगा
  • विस्वास और धैर्य से अपने मूल लक्ष्य को तय करके उसकी क्रिया विधि को क्रियान्वित करना होगा तथा भारतीय आदर्श और नई सोच तथा तकनीक को स्थान देना होगा
  • नव परिवर्तन को समझ कर उसमें भी परिवर्तन होना चाहिए मगर मेरे मत में व्यवहारिक और संबंधों का आधार भारतीय संस्कारों के अनुरूप हुआ तो उसे ज्यादा सफलता मिल सकती है
  • वह शान्ति सोहार्द और मैत्री की परिभाषाये समझ कर अपनी सीमायें तय करे
  • आप जो वास्तव में बो रहे है वही आपके बच्चे आपको मई ब्याज के लौटने वाले है 
  • जीवन के सिद्धांतों में कुछ आदर्श अवश्य बनाइये अन्यथा आप जिनके लिए जो आदर्श विपरीत कार्य कररहे है ये उन्हें ही एक दिन पतन के मार्ग पर खड़ा कर देंगें | 
  • जीवन में संस्कारों कासकूं जान्ने के लिए निस्वार्थ भाव से अपने सकारात्मक कर्मों को जगह दीजिये जीवन स्वयं आनंद बन जाएगा |
जीवन के महत्वपूर्ण समय से बंधा युवा यदि निराश अकर्मण्य और हताशा लिए हुए आगे बदता रहा तो भारतीय इतिहास न मुझे क्षमा करेगा ना आपको इसलिए जैसे भी हो युवा को अपना सांस्कारिक सहयोग अवश्य दे अन्यथा राष्ट्र,समाज और संस्कृति के महा विनाश में समय आपका भी नाम जोड़ देगा |

Thursday, June 18, 2009

अतीत को वर्तमान से जीतो भविष्य स्वर्णिम हैं

अतीत को वर्तमान से जीतो भविष्य स्वर्णिम हैं


अतीत की लाशें लेकर हम चलते रहे ,समय बदलता रहा और अतीत के जुर्म के जिम्मेदार हमारे सामने से गुजरते रहे वे हमे कमजोर, कमतर और हारा हुआ देखना चाहते थे हमें और यदि ये न हुआ तो हम स्वयं अपनी चोट ,धोखे और छलावे को याद कर कर के स्वयं को कमजोर बनाते रहे |हम अपने आप से उबरना नहीं चाहते थे, और यही जीवन का ग़लत मोड़ हम सब झेल रहे थे |दुनिया में एसा कोई नहीं है जिसने किसी अपने का धोखा ,छलावा और दर्द न झेला हो ,मगर यदि उसके बाद पीड़ित व्यक्ति मे उस दर्द और अहसास को ताक़त बना कर जीने और लड़ने की शक्ति पैदा हुई है तो उसने इतिहास भी रचे है |आज हम इस बात के चिंतन पर है कि यदि अतीत के घावों को हरा रहने दे और उन्हें दूसरा समझ कर छोड़ना सीखें ,शायद अपने जीवन को इसकी सबसे बड़ी जरूरत है |अचानक रेल या बड़े वाहन की चपेट से बचा व्यक्ति याद जरूर रखता है कि उसका जीवन बच गया मगर वह उसकी छाया वर्तमान पर नहीं पड़ने देता ऐसा ही जीवन चक्र है जिसमे बीते हुए यातना के छन तुम्हें उन्नति और धनात्मक सोच से दूर कर दंगे जबकि तुमसे इश्वर को बहुत कुछ सिद्ध कराना है अतीत को वर्तमान से जीतो भविष्य स्वर्णिम हैं

सम्पूर्ण विकास के आरम्भ के लिए पहले सम्पूर्ण महाविनाश जरूरी होता है यदि हम विनाश की विभीषिका से नहीं उबरे तो हम संसार के प्रति दायित्वहीन सिद्ध हो जायेंगे जबकि हमें जीवन और म्रत्यु के पश्चात भी स्वयं को सिद्ध करना पड़ता है |वर्तमान यही मांगता है की जीवन अतीत से सबक लेकर कठिन परिश्रम से उसे सफल बनाने का नाम है |हम अतीत को भूले नही वरन उसे इस तरह उपेक्षित करदे जैसे महाविनाश के कारण की कल्पना और कारक |हमें बहुत आगे जाना हैयही संकल्प आपको शक्ति देगा मगर अतीत बेडियाँ बन कर बार बार लालच,दर्द,और मजबूरी का वास्ता देकर आपका मार्ग अवरुद्ध करेगा,तुम्हारे बहुत करीब के लोग तुम्हे लालच और कुछ समय के प्रलोभन देकर तुम्हारा मार्ग रोकेंगे ,तुम भ्रम की स्थिति मे अल्प समय के सुख के लिए भ्रमित अवश्य हो सकते हो मगर यह तुम्हारा सत्य नही है तुम्हारा निर्माण बहुत अद्वतीय है और तुम्हारे संकल्प को ही उसे पूरा करना है|तुम वर्तमान केवल वर्तमान हे जियो और तुम्हे अपने गंतव्य के लिए द्रण संकल्पित होना ही पड़ेगा |

अतीत के जख्मों के अहसास से वाकिफ तुम्हे नई दिशा का रुख भविष्य की संपूर्ण खुशहाली बन कर तुम्हारा इंतज़ार कर रहा है ,तुम्हे उसकी ओर इस तरह बढ़ना हैजिससे वसीयतें तुम्हारा अनुशरण कर सके |सब जानते है कि जीवन की संपूर्ण सच्चाइयों को
जीकर जो परिष्कृत हुआ है वो ही समाज के इतिहास मे जाना गया है| आपमें भी अपरमित शक्ति है , आपको एक योधा की भांति सघर्ष करना है,फिर तो वर्तमान और भविष्य सपने नही हकीकत होगा और तुम होगे वर्तमान और अतीत के अजेय सत्य |

शेष फिर


आलोचना के जीवन पर प्रभाव

आलोचना के जीवन पर प्रभाव
"परम धर्म श्रुति विदित अहिंसा , पर निंदा सम अघ न गिरीशा "

निंदक नियरे राखिये
हम जिस समाज जिस राष्ट्र मे रहते हैं ,वह धर्म ,संस्कृति ,समाज और मूल्यों के कारण ही महानतम स्थान पर है |तकनीकी उन्नति ,मूल्यों और धर्मों का सद्भाव तथा अनेकता मे एकता का जो परिद्रश्य हमने देखा है वह अद्भुत था |धर्म ने व्यक्ति को सम भाव ,सर्वहारा ,कठिन परिश्रम का संदेश दिया तो दूसरी और यह भी बताया कि वह जीवन के प्रगतिशील मार्गों मे अपनी सफलता कैसे सुनिश्चित करे |कैसे वह जीवन से वह रस निकाल सकता है जिसमें उसका सम्पूर्ण व्यक्तित्व धनात्मक होकर अपनी वसीयतों को वो साँस्कृतिक प्रतिमान दे जो भारतीय संस्कारों के अनुरूप हों |
वर्तमान में हम बार बार समाज के उन चरित्रों का चिंतन करते है जो चिंतन और सोच का विषय ही नही है और हमारा तमाम अस्तित्व और समय ,ताक़त इनमे ही जाया हो रही है |इस चिंतन के पश्चात् बहुत देर तक मन व्यग्र बना रहता है,कुछ न कर सकने कि छटपटाहट और अधिक व्यथित करदेती है मन मष्तिष्क को |हम अपने को ढूढ़ते ढूढ़ते थक जाते है उत्तर न हमारे पास होता है न दूसरों के पास,मगर हम स्वयं को दुखी और प्रताडित करते रहते है |

मेरे मत मे यहाँ तुलसी का विज्ञान और कबीर के जीवन दर्शन का व्यवहार शायद हमें जीवन का वह प्रैक्टिकल करने को बुलावा देता है जिससे शायद डिप्रेशन (निराशा) उत्तेजना ,और बहुत सारी व्याधियों से बच कर हम प्रगति शील व्यवस्था मे अपना स्थान बना सकते है |

  • निंदा करने वालों की बातें आपको पुनर्चिन्तन का मोंका देती हैं ,आपको उन्हें सम्मान और अपनत्व देकर अपने मे सुधार की आवश्यकता पर बल देना चाहिए |बुरा लगना ,दूसरो को प्रतिउत्तर मे उनकी कमियां बताने लगना आपको हीन और निम्न स्तर का साबित करता हैं ,आपको अपने निंदा करने वालों से सीखना चाहिए क्योकि वे आपको अपना तो समझते है
  • दूसरों की निंदा से बचे ,क्योंकि निंदा का विज्ञान बड़ा चमत्कारिक है इस लिए तुलसी ने अनेक स्थानों पर यह बताया कि निंदा सुख से बचें यह आपकी शान्ति ,विकास ,सुख,और सम्रद्धि सब छीन लेता है और तर्क और विचारों मे आपको बोना साबित कर देता है ,कारण यह कि माँ अपने तीन माह के बच्चे को भी जबरन दूध पिला कर शांत नही कर पाती आप जिनसे सही कार्यों कि उम्मीद लगाए बैठे है उनकी एवं आपकी सोच मे अभी दो तीन जन्मों का अन्तर हैं अभी उन्हें इसी उठापटक मे २ या ३जीवन भुगतान करना है \करने दो उन्हें वे आपके सोच के विषय नही हो सकते |

  • निंदा का विज्ञान यह है कि हम जब किसी कि निंदा करते है तो अनंत मे हमारी सोच,शब्द,और उसकी आकृतियाँ जीवित अवस्था मे होकर सघर्ष करती है कारण यह कि सूक्ष्म के लिए पंचतत्व से केवल शुन्य और वायु आकर लेकर हमारी आलोचनाओं को जीवित बनाए रहते है ,एक दिन उन तरंगो को जब नियत परावर्तन तरंगे मिल जाती है तो वे अनगिनत वेग से वहां वापिस आती है जिसकी आलोचना कि गई है और उसकी जीवन तरंगों से टकरा कर वह फिर हम तक आती है और हमे बैठे बैठे निराशा के भाव मे आ जाते है बिना कारण
  • जीवन में समय कम है क्या मै सबके सुधार के लिए हू ,शायद ईश्वर ने हमे अपने विकास के लिए भेजा है हम केवल अपने परिवेश से जुड़े |
  • प्यार इस तरह बाटें कि जीवन से निंदा ही ख़त्म हो जाए |
हमे विचार करना चाहिए की क्या कोई हारा हुआ विचार हमे जीत का सुख दे सकता है या नहीं|
शेष फिर

मित्रो आपके प्यार और सुझाव सरमाथे मै प्रयत्न रत हू की ब्लॉग की नियमावली और अपनी त्रुटियों को समझ पाऊआपके असीम प्रेम का साथ रहा तो मै और प्रयास अवश्य करूंगा |


Wednesday, June 17, 2009

दायित्वों की आपूर्तियाँ बनाम सफलता


दायित्वों की आपूर्तियाँ बनाम सफलता


सामान्यतःहम केवल अधिकारों के लिए संघर्ष रत रहते हैं ,हमारी कोई व्यवस्था या हमारी जिद जब पूरी नहीं हो रही होती है तब हम आंदोलित हो बैठते है |आज व्यक्ति के सामने यही प्रश्न है की वह जीवन में जहाँ तक उसकी पहुँच है अपनी बात मनवा पा रहा है या है या नहीं|वह समाजमें रहता है ,काम करता है ,जहाँ उठता बैठता है,सबका प्रभाव उस पर पर्याप्त रूप से पड़ता है |उनसे ही प्रेरित होकर उसकी मांगे बढती रहती हैं , वह उन्हें पूरा करने के लिए हर स्तर पर प्रयत्न करने लगता है। समाज से सीखे हुए अधिकारों के मापदंड उसे बार बार प्रोसाहित करते रहते हैं। उसने अपने ही परिवार, समाज के बुजुर्गों को वसीयतें बांटते देखा था और अब वह वही मांगे उनसे कर रहा था। समाज ने जो उसे दिया था वही उसके अस्तित्व की पहचान बन गया था।

प्राचीन से ही भारतीय दर्शन इस बात को समझाता रहा है कि कर्तव्य, दायित्व और अधिकार अपने क्रम में ही होने चाहिए थे। यदि इनका क्रम ख़त्म किया गया तो समाज में और अधिक समस्यायें बढ़ जाएँगी, जिनका हल हमारे पास नहीं होगा। शायद यही विषय स्तिथियाँ वर्त्तमान में सब समस्याओं का सबसे बड़ा मूल है। हम अपने आस पास के वातावरण, संबंधो और समाज से यही चाहते है कि वह हमारे सम्पूर्ण व्यक्तित्व कि कमियों को पूरा करता रहे परन्तु वह यदि हमे कुछ नही दे पाता तो यही से चालू हो जाता है एक न ख़त्म होने वाला संघर्ष |



पुनर्चिन्तन के इस समय में महत्व पूर्ण यह था कि क्या हमने अपने कर्तव्यों को ठीक से पूर्ण किया ,क्या हमने जीवन के हर पल को न्याय दिया ,क्या हम संबंधों कि अपेक्षा पर खरे उतरे |यदि इन सब का उत्तर धनात्मक रहा तो हमे आशा करनी चाहिए थी ,अन्यथा हम जिस स्थिति से कुछ चाहते है उसके लिए हमने कुछ किया ही कहाँ था

और उससे हमें आशा भी नहीं करनी चाहिए |
दायित्व ही केवल एक ऐसा पक्ष है कि यदि मै और मेरा समाज इसका निर्वहन ठीक से कर पाये तो शायद अधिकारों कर्तव्यों और पीदियों का द्वंद स्वतः समाप्त हो सकता है|अब प्रश्न यह था की मेरा दायित्व किसके प्रति होना चाहिए?
इस प्रश्न के उत्तर में धर्म शास्त्र और दर्शन दोनों अपना मत यह देते है कि सर्व प्रथम आपको यह तय करना होगा कि आपके जीवन में ऐसी कोंन सी विषय स्थितियां है जिन्हें आप बदल नहीं सकते , और जिनसे आपका अतीत , वर्तमान और भविष्य तीनो जुड़े है शायद इनके प्रति ही आपको दायित्व निभाना है |
दायित्व के प्रथम सोपान पर माता का स्थान है , जो आपको जीवन शिक्षा और परवरिश देती है और उसका दायित्व निर्वहन आपके जीवन को किसी भी स्थिति में सुखमय बनाए रखेगा |
दूसरे स्थान पर पूर्ण भाव से पिता आते है, क्योकिं वे आपके जीवन के आधार स्तंम्भ रहे है, अपनी आवश्यकताओं कि परवाह किए बगैर उन्होंने आपकी परवरिश की है और उनसे आपको कार्य स्थान की स्थितियों में पूर्ण संतोष मिलेगा |
तीसरे स्थान पर गुरु आते है जो आपको पूर्ण दायित्व निर्वहन के लिए, संतान को संस्कार, आय और पराक्रम देंगे |
चोथे स्थान पर यहाँ आपका शरीर है | धर्म ग्रंथों ने स्पष्ट किया कि "शरीर माध्यम खलु धर्म साधनं "शरीर ही आपको प्रेरणा और भाव देता है और उसके प्रति धनात्मक रहना चाहिए |
अन्तिम एवं पाँचवे स्थान पर है आपकी आत्मा इसके प्रति आप हर वक्त जिम्मेदार रहते है आपको हर समय धन ऋण का ज्ञान यही देती है और आप हर समय इसके द्वारा ही प्रोत्साहित या दुत्कारे जाते रहते हो आपके सर्वांगीण विकास की असल कुंजी यही है |

Monday, June 15, 2009

प्रेम

प्रेम

प्रेम

अनादि काल से इंसान के मष्तिष्क में यह प्रश्न उठता रहा की वह कोंन ही विषय स्थिति है जो मानवीय अस्तित्व को अमर और शाश्वत बनाए रखती है |जन्म के समय से ही उसने अपने आस पास सहज प्रेम की अनुभूति की थी और उसका विकास भी उसी परिवेश में हुआ था |उसने चंदा मामा सूर्य और प्रकृति के प्रेम को अपनी अबोधावस्था में बहुत पास से देखा,अनुभव किया था |तोता, मैना, कौओ,कबूतरों को पकड़ने का प्रयास और उने देने की जिद उसने बहुत की थी |कई बार चींटी चीटों के साथ खेलना नन्हीं सी मखमल की गुड़िया और जुगनू छोटे छोटे हाथो में बंद कर उन्हें रखे रहना तथा अनेक खेलो के प्रयोजनयही सिद्ध करते थे की वह ईश्वर के घर से एक अमर प्रेम लेकर चला था और वही उसके भविष्य का सत्य होना चाहिए था

प्रकृति ने मानव को यही सिखाया कि प्रेम का रूप आकार प्रकारअनंत की सीमा से भी परे है |कवियों और साहित्य के शब्द बोने पड़ जाते है ,चिंतन और विचारों की दूरी साथ नही दे पाती मन मष्तिष्क इस परिभाषा को उम्र भर समझाने की चेष्टा करता रहता है और उस अनंत को अपने अनुसार ही समझ पाता है |प्रकृति ने मनुष्य को परिवरिश दी ,सूर्य ने उसे जीवन बचाए रखने का उपहार दिया ,हवाओं ने उसे जीवन संरचना की गति, साँसे दी ,मिटटी ने उसे जीवन बनाए रखने के लिए उपज दी,और अन्तरिक्ष ने उसे अनंत तक की नई परिभाषायेदी |

समय और परिवर्तन तेजी से चल रहे थे ,पाश्चात्य संगीत और विकास की दोड़ में हमारी भी रूचि थी |हम सारी उपलब्धियां चाहते थे |स्कूल, कॉलेज और ट्रेनिग सेंटर को - एजूकेशन के माहोल में थिरक रहे थे |फ्रैंड कल्चर स्तर का प्रश्न बन गया था ,खुले और स्वतंत्र विचारों का प्रयोग शर्म ,तहजीब और सादगी के विपरीत नंगे पन की सीमा तक था |हमे ये सब अच्छा लग रहा था क्योकि हम परम्परावादी विचार और बंधनों से अभी अभी मुक्त हुए थे |समाज नए युग के नशे में था ,और हमारी सोच में घर वालो की नसीहतें थी की अपना स्वार्थ निकालने के लिए कुछ भी करो कैसे भी, नकली संबध खड़े कर लो ,समय ने इस आग मै घी का काम किया और पूरा व्यक्तित्व प्रेम रहित होकर काम निकालने का नाटक बन गया |समय और परिस्थिति ने मुझे और अधिक परिष्कृत करके इस खेल का महा नायक बना दिया और मेरा पूरा अस्तित्व नाटक, छलावा और बहरूपिया हो गया जिसके आसुओं में भी काम निकालने की कला थी |

इन सब विषय स्थितियों वह पलने के बाद वह धीरे धीरे बड़ा होने लगा परिवार के वातावरण के हिसाब से उसने व्यवहार चालू कर दिया था ,पहले तो उसने दुनिया की हर चीज़ से अधिकता की पराकाष्ठा तक प्रेम किया मगर धीरे धीरे उसने परिवार और अपनो के बीच के मतभेद भी समझे | वो परिवार और अपने कल तक जो निर्विकार और पूर्ण भाव से केवल प्रेम दे रहेथे वेआज अपनो परायों और समाज का मूल्यांकन कर यह बताने लगे कि
किसको कितना और किस हिसाब से प्यार बंटाना है |किसको देखकर हसना है, किसको देखकर चुप होजाना है ,और किसको कितना महत्व देना है |प्रकृति और इंसानियत का मूल मंत्र कलयुग के दुर्विचार का शिकार होगया था | हम परिवार एवं अपनों की मिलकियत बन बैठे थे हमारा मन मष्तिष्क गुलाम और ग़लत दिशामे अपना रूप लेरहा था, मगर इस उम्र मी हमें इन सबकी परवाह ही कहाँ थी |धीरे धीरे यही हमारा अस्तित्व बन गई और घर एवं अपनों के व्यवहार के स्वार्थ,फरेब झूठ और कृत्रिम व्यवहार हमने उनसे भी अच्छी तरह सीख लिया क्योकि हमारी ग्रहण शक्ति अद्वतीय थी |

आज मै सबसे अलग जीवन जी रहा हूँ |मेरे अपने नियम और आदर्श हैऔर में दुनिया को अपने हिसाब से चलता हुआ देखना चाहता हूँ ये मेरे अहम् की संतुष्टी के लिए परमावश्यक है |और कुछ लोग साथ रहे पुराने रिश्ते शनै शनै दूर होते गए और मेरी उपलब्धियां सारी सीमायें छोड़ कर मुझे सफलता और विकास का उत्कृष्ट मान बैठी में कुछ ही समय में संपत्ति सफलताओं और धन और वैभव का एक बड़ा ढेर बन गया और समाज अपनो के साथ एक बनावटी परिवेश में मिलने लगा |शायद यही मेरे जीवन के चिह्न बन गए थे |

समय के साथ खाली पन बदने लगा ,पत्नी, रिश्ते,और मेरे अपने दूर होगये थे उन्होंने अपना अपना ठिकाना ढूढ़ लिया था |उनपर मेरे लिए मेरा ही पैदा किया हुआ आडम्बर चरित्र था और उनसे अब सच्चे प्रेम की कामना करना बेकार था बच्चे मेरे वैभव से परिपूर्ण विदेशों में थे ,उनकी जीवन से यही शिकायत थी की मैंने कभी उन्हें समय नही दिया बाप का फ़र्ज़ पूरा नही किया आज वे भी सफलता के उत्कर्ष पर मेरे प्रतिद्वंदी हो गए थे |आज मुझे प्रेम के विराट पल याद आरहे थे ,मेरा मन क्लांत और निराश था |शायद वैभव ,धन और बचपन की सींखे मुझे अपराध बोध सी जान पड़ती थी और मै सबसे घिरा होने के बाद भी नितांत अकेला रह गया था |

प्रेम अनुभूति था ,वही ईश्वर का वास्तविक स्वरुप था ,उसकी सीमा ही कहाँ थी |वह तो असीम अबूझा और तन मन की सीमा से कही परे था |उसमें कुछ पाने की चाह ही कहाँ थी वह तो सब कुछ लुटाने को था ,यही तो दीवानगी थी जिसमे वह अपने यार को ईश्वर जैसा मन बैठता है और उसके एक इशारे पर सर्वस्व लुटा डालता है|यही है सहज प्रेम और इसमें ही ईश्वर निवास करता है |धर्म, साहित्य ,और दर्शन जिस सरल विधा से संसार जीत पाये थे वह यही प्रेम था शाश्वत ,चिरंतन ,अनंत और पूर्ण |यही ब्रह्मांड का एकमात्र सत्य था निर्विकार ,निर्विचार और अगाध किंतु सहज प्रेम

Sunday, June 14, 2009

बदलता समय और उसका मूल्यांकन

युग मान्यताए संस्कार और समय सब ही तो बदल रहा था फिर हमारे समाज परिवार और राष्ट्र की सोच में परिवर्तन क्यो नही होता ,उन सब में भी बदलाव आया सब बदलता चला गया मूल्य आदर्श परमार्थ की भावनाए धराशाही होने लगी, घर के बच्चे बदलाव के बड़े चक्रवात में उड़ने लगे और उनके अपने उन्हें बचाने के फेर मे बार बार चोटिल होते रहे, किसी पर समय ही कहाँ था कि वे दूसरे के रिसते घावो को सहला पाता
और सब जानकर भी कुछ नकर सकने की कशिश बदती हुई एक बड़ा नासूर बन बैठी और दर्द का सार्वजानिक होना गुनाह बन गया अब आप बताइये कि जीवन के इस बदलाव और परिवर्तन पर मुझे हँसना चाहिए था कि रोना क्योकि मेरे हाथ में वह भी तो नही था हम हमेशा एक भावना लिए खड़े रहे कि कल शायद सब अच्छा हो जाएगा आशा के बड़े जहाज पर कल की आशा मे जीते हुए हम अनभिज्ञ भविष्यति से बारबार टकरा रहे थे ठीक अच्छा और सबकुछ सामान्य होने की आशा में ऐसे समय मन मष्तिष्क और वैचारिक आदर्श हारने को थे और हम उम्मीद के के भंवर में फसे अकर्मण्य होकर केवल कर रहे थे एक नही ख़त्म होने वाला इंतज़ारयुग मान्यताए संस्कार और समय सब ही तो बदल रहा था फिर हमारे समाज परिवार और राष्ट्र की सोच में परिवर्तन क्यो नही होता ,उन सब में भी बदलाव आया सब बदलता चला गया मूल्य आदर्श परमार्थ की भावनाए धराशाही होने लगी, घर के बच्चे बदलाव के बड़े चक्रवात में उड़ने लगे और उनके अपने उन्हें बचाने के फेर मे बार बार चोटिल होते रहे, किसी पर समय ही कहाँ था कि वे दूसरे के रिसते घावो को सहला पाता दर्द
और सब जानकर भी कुछ नकर सकने की कशिश बदती हुई एक बड़ा नासूर बन बैठी और दर्द का सार्वजानिक होना गुनाह बन गया अब आप बताइये कि जीवन के इस बदलाव और परिवर्तन पर मुझे हँसना चाहिए था कि रोना क्योकि मेरे हाथ में वह भी तो नही था हम हमेशा एक भावना लिए खड़े रहे कि कल शायद सब अच्छा हो जाएगा आशा के बड़े जहाज पर कल की आशा मे जीते हुए हम अनभिज्ञ भविष्यति से बारबार टकरा रहे थे ठीक अच्छा और सबकुछ सामान्य होने की आशा में ऐसे समय मन मष्तिष्क और वैचारिक आदर्श हारने को थे और हम उम्मीद के के भंवर में फसे अकर्मण्य होकर केवल कर रहे थे एक नही ख़त्म होने वाला इंतज़ार
दूसरी और पाश्चात्य युग की या आधुनिक दोड़ थी वंहा सब कुछ नया था, नए रिश्ते, बड़े बड़े वादे और बहुत बड़ी चमक और अनगिनत रिश्ते उनमे अपना सुख खोजता अकेला आदमी परिवर्तन के इस युग में नाईट क्लब , बर्थडे और बहुत सारे डे साथ ही रोक और रेप म्यूजिक नशीले वातावरण और देर रात तक न ख़त्म होने वाला शोर और भयानक कलरव और डरावने वातावरण में शान्ति की खोज करता हमारा नायक ,जो कथाकथित आधुनिक होने के लिए जरूरी था हमारे सामने थे ,सब कुछ खुलेपन की सीमा से बहुत अधिक था| हम उस लालची व्यक्ति की तरह होगये थे जिसे अभी एक साधू ने विशाल धन भण्डार में खड़ा क़र यह कह दिया था की जितना चाहो लेलो और वह पागलपन के चरम पर धन समेटने की कोशिश कर रहा था उसे बार बार गुस्सा आरहा था की वह तो कुछ नही ले जा पा रहा है यहाँ तो लाखो गुना धन है ,परन्तु वह थक जाता है शरीर और समय ख़त्म हो जाता है मगर उसके मन की अतृप्त आकाक्षाये पूरी नही हो पाती विलाप और क्रंदन के सुर और अधिक दयनीय हो जाते है और उसकी मानसिकता यह कहने लगाती है की इससे तो वो पहले ही अच्छा था कमोवश हम सब भी आधुनिकता के एस युग से यही गति बना बैठे है जिसके लिए हमे अपना गंतव्य ,जीवन का मूल उद्देश्य ,और सारे आदर्श भुलाने पड़े है और शायद हम एक बड़ी भूल का शिकार है |
अब यहाँ प्रश्न यह था की परिवर्तन पूर्णता से हो रहा था मगर क्या हम अपने को तैयार कर पाए थे उसके लिए ,यहाँ भी बड़ी दुविधाये थी माता पिता ने जो कष्ट ,संघर्ष और कठिन परिस्थितियों का सामना पूर्व में किया था उनसे उनकी सोच पर जो ऋणात्मकप्रभाव पड़ा था वे उसे अपने जीवन की कहानियों में जोड़ चुके थे ऊनकी हर सोच इस विचार से चालू होती थी परिणाम वे हरजगह समायोजन चाहते थे जो ग़लत था|अति स्वतंत्रता का अतीत चाहने वालो के लिए बड़ा दुखद था की उनके ही बच्चे आज उसी स्वतंत्रता की मांग कर रहे थे ये बात ऑर है कि बच्चों की सोच अपने स्वार्थो में लिप्त थी
विकास ,अभ्युदय और प्रगति की चाह तो अनादी काल से मानव मष्तिष्क में रही है मगर वर्तमान का विकास ग़लत प्रयोग के कारण अपना महत्व खोने लगा है |भारत परम्पराओं और संस्कारों का पुजारी था उसपर अतुलनीय सम्पदा के रूप में केवल शान्ति, सोहार्द ,मैत्री और सांस्कृतिक प्रतिमान ही तो थे बदलाव का तांडव इन मूल्यों ने ही झेला है |
आज हम इस महा रोग से छुटकारा पाने के लिए मार्ग की खोज में है इसके लिए कुछ सुगम उपाय है जिन्हें प्रयोग में लाकर शायद हम कुछ हासिल कर सकते है |
परिवार सबकी राय से कुछ अनुशासन बनाये उस पर मुखिया सहित सब अनुशरण करें
बच्चो और परिवार को अपने काम और खुशियों में भागी दार बनायें
विश्वास,सत्य और सहजता से जीवन जीने का प्रयत्न करें
दोस्तों का विचार करने से पहले यह जरूर सोचे कीदुनियांमें सभी लोग अपने स्वार्थो से जुड़े है
पहले स्वयं फिर अपने नजदीकी लोग फिर पड़ोस फिर नगर और फिर देश यानि की व्यक्ति केवल अपने हितों से सम्बन्ध रखता है |उसका अस्तित्व खतरे में हो तो शायद वह किसी संबध के बारे में नहीं सोचता पहले स्वयं ऐसे बनो की तुम किसी की मदद कर सको |

मोबाईल कप्यूटर और फ़ोन से तब दूर रहे जब आप अपने मूल उद्देश्य केलिए प्रयत्न कररहे हो यानि कम और अध्ययन के समय इनका प्रयोग न करे|
प्रगति शील समय के साथ अपने संस्कारों धर्म और आदर्शो की जीवन शैली पढ़े और उनपर अमल करने की कोशिश करें|
जिस कार्य व्यक्ति और परिस्थिति को छुपाना और झूठ का सहारा लेना पड़े वह सम्बंध आपके लिए ऋणात्मक ही होगाआपको अपने मूल उद्देश्य का निर्धारण कर उसे हर हाल में प्राप्त करना है यह संकल्प रखना है
परिवार के लोग आपके समय से कुछ समय चाहते है ध्यान रखें |प्रति दिन अपने कार्यों का मूल्यांकन करें कि जो गलती आज हुई हो उसपर नियंत्रण करें
अपने व्यवहार से किसीको तकलीफ दे न ही दूसरो के सम्बंध में आलोचनात्मक द्रष्टिकोण रखे यह आपके व्यक्तित्व को रिनात्मक बना सकता है |हमेशा याद रखे कि जीवन शरीर और संसार आपकी परीक्षा का विषय है इसके हरपहलू पर आप परीक्षार्थी है और आपको परिणाम केलिए भविष्य पर निर्भर होना है फिर तो आप अपनी सफलता आज निश्चित करे और अपने सारे संबंधो और कार्यों को कठिन परिश्रम से जीतें |प्रेम सोहार्द अपनत्व और अपनत्व का भाव पैदा करें तथा प्रकृति के अनुसार सहज जीवन जीने कि आदत डालें |ध्यान रहे कि आपके दोस्त आप और आपकी प्रेयसी या प्रेमी यदि आपके विकास सम्रद्धि में बाधक है या वह आपको झूठ फरेब और ग़लत सलाह दे रहा है तो वह आपको शरीर धन और मानसिकता से ठग रहा है ऐसा व्यक्ति सम्बंध का आधार झूठ और सहानुभूति पर टिकाये होता है |क्या दुनियां का कोई आदमी इसे विवाह के लिए उपयुक्त मान सकता है जो सबके साथ यही व्यवहार करता रहा हो शायद यह भी प्रश्न ही है |हमें मन लगाने के लिए अलग व्यक्ति चाहिए और आदर्शो का पालन करने के लिए आदर्श कन्या या वर चाहिए |कैसी विडम्बना है | बहुत से नियम परिस्थितिया बनाती हैहमे रोज़ नया सीखने कि आदत डालनी चाहिए वसीयतें आदमी को धन वैभव और ऐशोआराम कि जिंदगी तो दे सकती है मगर वह उसका चैन और शान्ति छीन लेती हैं आपको सफल सफलतम होना हैं जिससे सदियाँ आप पर गर्व कर सके |
आहार निंद्रा मैथुन तो जानवर के लक्षण हैं आप अलग इश्वर की अद्वतीय कृति हो यह आपको ही सिद्ध करना है|




शेष फिर----

Friday, June 5, 2009

सहज जीवन एक ज्योतिषीय सलाह


सहज जीवन एक ज्योतिषीय सलाह
भारतीय दर्शन मे मानवीय आदर्शो और मूल्यों के संवर्धन की बार बार बात कही गई है वाही हर धर्म हर साहित्य हर मज़हब इस बात पैर बल देता रहा हैकि जीवन की पूर्णता उसे सही मायनो में समझने और अमल करने में है समाज शास्त्री समय समय परयह वर्णन करते रहे की व्यक्ति के हाथ में जीवन के कुछ ही पल रहते है और उसे इसमे सफल होना होता है| अनादी काल से वह उसमे अपना वर्चस्व कायम रखने में सफल भी हुआ है उसके हर कर्तव्य और क्रियान्वयन पर समाज एवं उसके युग की पैनी नजर भी रही है अर्थात् उसके जीवन चक्र के हर पहलू और क्रियान्वयन का सूक्ष्मत;हिसाब किया गया है अब यहाँ व्यक्ति के स्तर से प्रश्न यह उठता है कि जीवन की तमाम सफलता इस बात पर निर्भर होती है है कि आपने जीवन कैसे जिया स्वछंद जीवन पूर्णता के साथ जीना एक विशुद्ध कला है और इस कला को बहुत से आयामों पर खरा उतरना होता है जिसमे परिवार समाज उनसे व्यवहार राष्ट्र और जीवन के हर सम्बन्ध को पूर्ण निष्ठां से जीना होता है, शायद यही धर्म का व्यवहार के पहलू पर बिल्कुल स्पष्ट राय देते है कि व्यक्ति को हर सम्बन्ध पूर्ण निष्ठां और पवित्रता से जीना चाहिए अन्यथा उसे उसके भोग्य मे क्या क्या दुष्परिणाम भोगने होंगे शायद उसका भविष्य और विकास या पतन के मार्ग यही से लिखे जाते रहे है

धर्म समाज और संस्कृति जानती है किआदमी के हर क्रियान्वयन का, उसकी हर सोच और व्यवहार का सीधा सम्बन्ध उसके भविष्य से है यावह वर्तमान के सारे संबधो व्यवहार में खरा उतर रहा है तो निश्चित ही उसका भविष्य सुरक्षित और विकासोन्मुखी होगा अन्यथा उसे उसकी भर पईतोकरानी ही होगी वेदअपनी ऋचाओ से यह साबित कर चुके है कि उसके हर कार्य और व्यवहार से उसका वर्तमान भविष्य ही नही अपितु आने वाला जन्म भी इस कार्य पद्धति का फल होगा अतः उसे वर्तमान के कार्यो पैर पैनी नज़र रखने कि आवश्यकता है उसका व्यवहार भविष्य का दर्पण होगा

यहाँ कुछ प्रभाव एवं कारणों को कुछ बिन्दुओ मे बाँट कर बताने का प्रयत्न कर रहा हूँ इसे सम्पूर्ण रूप से बताया जाना असंभव है

१--पिता से अच्छे संबंधएस बात को सहज ही स्पष्ट करते है कि उस जातक को कार्य से संतोष होगा
जॉब मे उसको शान्ति आय के साधनों से तसल्ली बनी रहेगी कार्य स्थान पर उसे पर्याप्त सम्मान मिल सकता है|

२--माँ के साथ संबंध अच्छे होने से उसे जीवन मे अभूतपूर्व सुख मिलने कीकल्पना की जाती है ऐसे व्यक्ति को अपने साधनों से जीवन पर्यंत सुख मिल सकता है इसके वपरीत माँ से अच्छे संबंध
अच्छे न होने के परिणाम सुख कि विहीनता और अभाव ग्रस्त जीवन का संकेत है|
३--भाई बहिन सेरिश्तो का प्रभाव यह बताता है कि एसा व्यक्ति अधिक सोहार्द बनाये रखेगा
तथा
समाया अनुसार वह तेज बल और पराक्रम का भी सयोग होगा यदि ये संबंध ऋणात्मक हुए तो इसको
पराक्रम बल और तेज कि कमी सहनी होगी और यह व्यक्ति स्वयं को कायर सिद्ध करलेगा|
४--गुरु केसाथ सहजता प्रेम आदर रखने वाला अपनी संतानों आय स्वास्थ्य से पूरित रहेगा उसकी
समस्याओं का शीघ्र समाधान हो जाता है व जीवन मे बहुत सी समस्याए सहज सुलझ जाती है
विपरीत स्थिति मे वह समस्याए ख़ुद पैदा करेगा और जीवन भर उनमे ही उलझा प्रयाण
करजाएगा|
५--पति और पत्नी साथ संबंध रखने वाला स्वास्थ्य मष्तिष्क और बल से पूर्ण होगा उसमे सच
बोलने सुनाने कि शक्ति होगी और वह सफलता और सुख
६--इसी प्रकार अपने हर सम्बन्धी रिश्तेदारों और मित्र मंडली मेअच्छे सम्बन्ध रखने वाला अपने आगामी जीवन काल में भी पूर्ण सफल रहता है|

गुरु पिता माता अपना शरीर और आत्मा केवल इन ५ के प्रति मानव के सम्पूर्ण दायित्व रहते है शेष तो उसके कर्तव्य ही है यदि उसने इन सबका ध्यान पूर्ण रूप से रखा तो यह सत्य है कि उसे सफलता केलिए अधिक प्रयत्न नही करने होंगे यदि इनमे से एक भी पक्ष अधूरा रहा तो भविष्य अधिक जटिलता और समस्याये पैदा करता रहेगा जिसका हल न होकर केवल वह भोग्य ही होगा|

शेष आगे के भाग में

Wednesday, June 3, 2009

सम्बन्ध और उनका सार

सम्बन्ध और उनका सार संबंध काल से आदमी के मष्तिष्क मे यह प्रश्न उठता रहा की वह जीवन मे रिश्तो और संबंधो का एक ऐसा ताना बना बुने जिसमे सम्बन्ध अपने पूर्ण रूप में जीवन की सार्थकता दिखा सके उसके अन्तः करण पर भविष्य का भय उन्नत और सहयोगी संबंधो की छाप तथा जीवन के हर पल को सहयोग और दिशा निर्देशन की आवश्यकता दिखाई है उसे अपने उपर अविश्वास होता है उसकी यह धारणा ज्यादा प्रबल होजाती हैकि उसका जीवन उसके अपनो के बिना अधूरा है उसकी सम्पूर्ण क्रिया शीलता में अपनो का सहयोग आवश्यक जन्म से उसे माता पिता भाई बहन और वसीयत में मिले संबंधो की कहानी को दोहराना होता है जिनके बारेमें सुना देखा या मनन किया होता है साहित्य के आदर्शो के प्रतिरूप उसे कहानी के मुख्या नायक से अपनी तुलना कर उसे अपने मूल्यों के समकक्ष बनने की चाह रखता है उसके मन मष्तिष्क मई यह बात ज्यादा एहमियत रखने लगाती है की शायद उसका जीवन उन संबंधो के बिना अधूरा ही होगा और इसी तरह की भ्रमात्मक स्थिति मई उसका बहुत बड़ा समय चक्र निकल जाता है

समय तेजी से भाग रहा होता है संबंधो के मायने बदल रहे होते है और साथ साथ उनकी इच्छाये और मांगे बढ रही होती है साथ ही चलते चलते जीवन की थकावट को किसी छाया की आवश्यकता महसूस होने लगती है और वह स्वयं को बहुत कमजोर और असहाय समझ बैठता है और सम्बन्ध और अधिक प्रबल होकर उसका शोषण करने लगते है पिता के पित्र ऋण से आबद्ध माँ समाज और समय के साथ उसका पुरा ध्यान वर्तमान की उपलब्धियों पर लग जाता है मूल्य हार गए होते है संबध छिन्न भिन्न होकर बिखरने लगते है और उसके अपने ही उसके जिंदा होने के सबूत मँगाने लगते है पुत्र पत्नी भाई बहन एक शोषक बन कर उसके आलोचक बन बैठते है और जीवन प्रश्न चिन्ह बन कर यह समझाने की कोशिश करने लगता है की उसकी सभी धारणाये ग़लत साबित हो गई है जो जीतेजी पिता पति या पत्नी का दायित्व नही निभा पाया वह उसकी मृत्यु के बाद उसकी आलोचना और उसकी अकूत संपत्ति को अपने हिस्से में लाने का प्रयत्न करने लगा शायद उसे यह मालूम नही था की एस स्वतंत्रता का बहुत बड़ा मूल्य उनकी पीदियों को ही चुकाना होगा ईश्वर एसे पुत्र और पत्नी या सम्बन्ध किसी को नादे जो जीवन अवं म्रत्यु के भावो से भी स्वतंत्रता और संपत्ति मे अधिकार माँगने लगे जिसकी ज़िंदगी हमेशा यह इंतज़ार करती रही की उसके अपने उसे अपनत्व दे मगर वहा भी उसे हारना पड़ा भविष्य के गर्त मे उस आत्मा का न्याय छिपा है आत्मा और पृकृति के न्याय मे क्षमा होती ही कहा है और संबध बेमानी होजाते है कमोवेश यही संबधो की अंतर्व्यथा है और उनसे ही उबार कर हमे अपने आप को जीवन दायिनी शक्ति अपरिग्रह का सहारा लेना है आदमी में वह अपरमित शक्ति है जो जीवन की धार को बलपूर्वक मोड़ सकती है ध्यान देने वाली बात यह है कि हम अपेक्षा रहित हो हेर गतिविधि पर ईश्वर कि नज़र है इसका ध्यान रखे तथा केवल स्वयम के बल पर भरोसा कर एकला चलो के मार्ग का अनुशरण करे तो शायद संबधो और समाज तथा दुनिया में तुम अजेय हो सकते हो

कम्पुटर.फ्रेंड्स और फ़ोन

युग की मान्यताये बदलती रही परिवार अपनों से और समाज से प्रत्याशा करता रहा की उनका व्यव्हार कार्य एवं क्रियान्वयन संस्कारों के अनुरूप विकास और सुख की ओर हो शान्ति सौहार्द और अपनत्व की महक से परिवार एवं समाज सुगन्धित हो, तो ही निश्चित तौर पे जो अंकुर प्रस्फुटित होंगे वे कुलमर्यादा एवं राष्ट्र की अतुलनीय धरोहर माने जायेंगे भारतीय संस्कृति और उसके प्रतिमान यह प्रतीक्षा करते रहे की उनके कुल की प्रगतिशील युवा आदर्शों और मानदंडो के उच्चतम शिखर पर रह कर अपना एवं राष्ट्र विकास कर सकें हजारों साल की धार्मिक, संस्कृतिक एवं सामाजिक मान्यताओं और विकास निर्देशों के अर्न्तगत युवा का विकास उस क्रम में हो जिससे इन् सब का संवर्धन हो सके तथा अपूर्व मानसिक संतोष के साथ निरंतर विकास दिखता रहे, मगर भारतीय संस्कृति समाज और धर्मं की उन् मान्यताओं को हार का मुहँ देखना पड़ा क्यूंकि युवा के बदलाव ने पाश्चत्य संस्कृति के सामने इन्हे बौना साबित कर दिया

परिवर्तन के इस दौर में जो नई संस्कृति पैदा हुई उसमें युवा ने कंप्यूटर, फ़ोन और फ्रिएंड्स के वातावरण को प्रश्रय दिया उसने अधिकाधिक समय इन पर व्यर्थ गवांते हुए अपने सुख और संतोष की आशा की उसे यह लगा की यह सही समय का उपयोग सुख की पराकाष्ठा एवं अपनी पहचान का सशक्त माध्यम है शय्स इन सब के साथ उसे नई पहचान और दीर्घकालीन सुखानुभूति मिल सके मगर थोड़े ही समय में समाज और परिवारों में कलह, अशांति और प्रतिदुंदी भाव तेज़ी से बढ़ने लगे उसका विकास, शान्ति और सुख बनावटी बन गया कंप्यूटर का प्रयोग उसने धनात्मक स्वरुप से हटा कर अपनी दबी और पीसी मान्यताओं का माध्यम के रूप में किया वहीँ फ्रेंड्स संस्कृति ने गहरे रिश्तों और भावनाओं को दर किनार कर के स्वयं को श्रेठ जताने की चेष्ठा की, जब की सत्य यह था की जो जितना बड़ा फ्रेंड बनने की कोशिश करता था वह उतना ही बड़ा स्वार्थ लिए खड़ा था तीसरी ओर फ़ोन, मोबाइल का प्रयोग अपनी कुंठित मानसिकताओं को पूरा करने में लगा दिया गया इन सब के दुष्परिणाम जल्दी ही सामने आने लगे, और हमारे सपनों का युवा मानसिक तौर पर विक्षिप्त सा दिखाई देने लगा उसका मानसिक दिवालिया पन इस हद पर बढ़ा की उसने अपने एहम रिश्तों को भी प्रतिद्वंदी बना डाला बोझिल, हताश और उदासीन जिंदगी ने उसके सारे मार्ग अवरुद्ध कर दिए

कंप्यूटर , फ़ोन और फ्रेंड्स की संस्कृति ने उसके जीवन में जो परिवर्तन किए वह निम्नवत हैं:-
उसने समय का दुरूपयोग अपनी कुंठित मानसिकता के लिए किया जो बाद में उसे दीर्घकालिक सुख नही दे पाया
खाली समय का प्रयोग शारीरिक वासनाओं और ऋणात्मक सोच का विषय हो गया
उद्देश्यविहीन जीवन ने उसकी दीर्घकालिक शान्ति पर प्रश्न चिन्ह लगा डाला
झूटी प्रशंसा और झूटे संबंधों ने संबंधों की पवित्रता ख़त्म कर के उन्हें मशीनी स्वरुप दे दिया
स्वास्थय के शोध ने कंप्यूटर और फ़ोन के प्रयोग से अनेक रोगों का सम्बन्ध बताया मगर भावावेश एवं अधिक उत्तेजनाओं में इस युवा ने उसे अनदेखा कर दिया
विकास और मर्यादाएं टूटती रहीं और परिवार उनके लिए बार बार दोषारोपित होता रहा
सत्य, आदर्श और सम्मान व्यथित होता रहा, झूट, फरेब और क्रोध दिखाई देता रहा
उसके विकास, सुख और गतिशीलता ने मानसिक विक्रतता का रूप धारण कर लिया, जिसका सम्बन्ध सामायिक आपूर्तियों से था

-- सार स्वरुप जो निष्कर्ष सामने आया वह अधिक महत्वपूर्ण था |युवा सोच में पचात्य संस्कृति ने जो फ्रेंड संस्कृति दी थी वह आधार रूप से उसकी दुर्दशा के लिए जिम्मेदार थी. भारतीय संस्कृति ने पूर्व मे स्पष्ट किया था 'एकला चलो रे 'अर्थात जीव अकेला उत्पन्न हुआ है और उसका अन्तिम उद्देश्य आत्मा के सुख से है | जब आज का युवा इस त्रासदी मे है तो आवश्यक यह है की वह पुराने मूल्यों से शिक्षा लेकर नए युग की सोच के साथ बढे, उसके तमाम व्यवहार से स्वार्थ और अल्प कालिक सुख की जगह आत्मा का आनंद अधिक महत्वपूर्ण तथ्य है उसके निराकरण के लिए निम्न बिन्दु महत्वपूर्ण है |

क्रोध जल्दबाजी और झूठ आपके व्यक्तित्व को पापमय और कमजोर बनाते है जिन रिश्तो के आधार फ़ोन, कंप्युटर और धोखेबाज फ्रेंड्स हो उन्हें बार बार परखना चाहिए |
अपने आदर्श शारीरिक आपूर्तियों के लिए होकर जो स्वयं सत्य और पुरातन हो होने चाहिए अन्यथा वासनाओं को आदर्श का नाम देकर अपनी संतानों को हम यही उत्तेजनाये दे रहे है |
जीवन का उद्देश्य जरूर बनाये और उसे याद रखे रोज यह सोचे की हम उसकी आपूर्ति में कितना समय लगा रहे है अन्यथा जीवन हमारी सारी शान्ति चीन लेगा |
अपनी झूठी प्रसंशा और अपनी बनावटी पहचान ढूढ़ते तुम व्यथित हो मगर जो तुम्हे प्रसंशा और पहचान दे रहे है वे स्वयं हैवान शैतान और अपनी ही नज़र मे निकृष्ट है आप कितने बड़े बन पाएंगे कितना सुख कितने समय तक ले पाएंगे ये प्रश्न चिन्ह ही रहेगा |
अल्प शारीरिक आपूर्तियों और अधूरे सुख के लिए आप जिन अपनों और अति सवेदनशील रिश्तो की नीलामी लगा रहे है उन्हें प्रतिद्वंदी समझ रहे है शायद समय आपको यही मान्यताये ब्याज सहित वापस कर देगा यह ध्यान रहे|

मर्यादाए नियम और सांस्कृतिक मूल्यों का खून करके आप में वो गुण पैदा होरहे है जो भावनात्मक सोच से परे केवल स्वयं को अति स्वार्थी जानवर के रूप में प्रस्तुत कर रहे है और वैसे ही रिश्तो की सोच तुम्हारा विषय है तुम्हे आदर्श इंसान बनाना था |

कठिन परिश्रम नियत उद्देश्य मर्यादाओं का जीवन सम्मान और हर व्यवहार मे खुशी बाटना तुम्हारी समस्या से तुम्हे छुटकारा दिला सकता है मगर इसके लिए तुम्हे झूठे संबंधो की बलि और सत्य का सहारा लेने की आवश्यकता है

yours

A.K.B

अनंत कामनाएँ,जीवन और सिद्धि

  अनंत कामनाएँ,जीवन और सिद्धि  सत्यव्रत के राज्य की सर्वत्र शांति और सौहार्द और ख़ुशहाली थी बस एक ही  कमी थी कि संतान नहीं होना उसके लिए ब...