हजारों वर्ष की साधना के बाद एक साधु महाराज को सारे देवताओं ने सबसे बड़ा मान लिया और यही कहा कि आप सबसे बड़े है और आपका वैभव , सम्मान और तपश्चर्यया तक कोई पहुंचा ही नही आज तक , ब्रह्माण्ड के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति आप ही है ,साधु महाराज स्वयं में इतने गौरवान्वित हुए की उन्हें सारी दुनिया तुच्छ जान पड़ने लगी , अहंकार और घोर घमंड के साथ वो चिल्ला कर बोले क्या मुझसे अधिक और कोई धर्म त्याग और संन्यास की परिभाषा समझ पाया है ,सब लोगो ने कहा नहीं महाराज कोई नहीं हुआ ऐसा ,तब फिर विष्णु ने कहा , महाराज आपके मुकाबले की तो बात क्या करूँ मैं , मगर मिथला के राजा जनक को लोग बड़ा मानते जरूर है ,आप लोगो का यह भ्रम भी दूर कर दीजिये , अहंकार में साधू महाराज गालियां देते हुए सीधे मिथला पहुँच गए , राजा ने देखते ही अपना आसान छोड़ कर उन्हें बैठाया , पाँव धोये और अपने महल में आथित्य दिया , साधु ने कहा राजा मैं शास्त्रार्थ करने आया हूँ तेरे साथ,राजा ने पाँव पकड़ते हुए कहा ,महाराज मै अज्ञानी क्या कर सकता हूँ शास्त्रार्थ ,हाँ मगर आपके प्रवचन अवश्य सुनूंगा , अभी प्रजा पर संकट आया है उसके लिए थोड़ा समय दें ,तबतक एक बार अपने धर्म का अध्ययन और करलें आप , मेरी सारी रानियां प्रजा आपकी दास सेवामे रहेगी आपमुझे अनुमति दे , साधु बोले जा जल्दी आना , कर साधु से राजा ने विदा ली ,फिर राजा लौटा तो देश पर आक्रमण , अकाल, भूकम्प ,न्याय, और धर्म सभा जैसे कार्यों के लिए साधु से आज्ञा लेकर जाता रहा परन्तु हर बार जाते समय यह अवश्य कह जाता था महाराज आप अपने धर्म का एक बार और अध्ययन करलें ,इस प्रकार २ वर्ष का समय कब बीत गया मालूम ही नहीं पड़ा ,जब ११ वीं बार राजा लौटा तो देखा साधु गायब थे , राजा ने अपने योग से जाना कि साधु कहाँ है, तो सीधा उनके पास घने जंगल में जहां साधु थें ,वहां पहुंचा और रो रो कर बोला महाराज मैंने आपको बड़ा दुःख पहुंचाया है ,क्षमा करें मुझे अब आप ,अपना धर्म उपदेश दें और मेरा परिवार आपको अपना सब कुछ मान चुका है ,आप दया करें , साधु ने धीरे से आँखें खोली और पूर्ण प्रेम भाव से कहना आरम्भ किया ,हे राजा वास्तव तू बहुत बदमाश है, तेरे कहने के कारण जब मै ११ वीं बार अपने धर्म का अध्ययन कररहा था ,तब मुझे यह ज्ञान प्रत्यक्ष दिखने लगा कि हर कण में जब वो ही समाया है तो मैं बड़ा कैसे और कोई छोटा कैसे , मैं तेरी ब्रह्माण्ड की सेवा और हर प्राणी के प्रति तेरे दया के भाव से भी नत मस्तक हूँ और आज मैं ब्रह्म को जान गया हूँ ,यह कहकर साधु गहन ध्यान में उतर गये ,राजा ने उन्हें प्रणाम किया और अपनी राजधानी लौट गया |
हम आज जिस समाज में खड़े है वहां हम केवल इस बात के लिए सदैव चिंतित रहते है कि , समाज का हर व्यक्ति श्रेष्ठता की तुलना में हमसे अधिक श्रेष्ठ न हो जाए , हमारी तमाम कोशिशें यही रहती है कि कैसे भीस्वयं को श्रेष्ठ साबित करने के लिए कुछ भीकिया जाए ,मगर स्वयं को इस रूप स्थापित किया जाए कि दूसरे उसकी तुलना नहीं कर सकें | इसी उधेड़ बुन में जीवन कब निकल जाता है यह अहसास ही नहीं हो पाता हमें , हमारे सारे जीवन का सार यही रह पाता है कि एक समूह जो हमारी प्रसंशा करता रहे , एक बनावटी परिवेश जिसमे हम स्वयं को श्रेष्ठ समझते रहे, और चाटुकारों से भरा छोटा सा हमारा दड़बा ,जिसमे हम स्वयं को सम्राट की तरह पाते है ,जीवन शनैः शनैःबीतता जाता है और हम अपने ही नशे मे चूर भ्रम पाले दुनियां से चले जाते है ,शायद यही जीवन का सत्य भी है |
मैं और मेरी उपलब्धिया बड़े अलग विषय है ,इस समाज में रहता हुआ व्यक्ति अपनी पहचान के लिए अपनी उपलब्धियों को दर्शाने की कोशिश करता रहता है , उसकी पहिचान के लिए बहुत बड़ी संपत्ति बड़े बड़े मकान बड़ी बड़ी गाड़ियां और ऐशो आराम का हर साधन होना आवश्यक होना चाहिए , उसकी पहिचान उसकी सम्पत्तियों के नाम से होती है , यह फार्म हाउस किसका है ओ हाँ बहुत बड़े आदमी है वो ,इसी प्रकार ३०० माले की बिल्डिंग , चार्टर प्लेन और हजारों साधनों की भीड़ ,आपकी पहिचान बनी रहती है ता उम्र ,
राजाओं महाराजाओं के विलास महल , नाट्य घर और राज सभाओं में कलाकारों और नृत्यकियों की हर रात चलने वाली प्रतियोगिताएँ ,बड़े बड़े राज्य प्रासादों में २४ घंटे जागते हरम और हजारों सेवादार , कहने का आशय यह कि धनबल , वैभव बल , रूपबल साधन और साधना बल ये सब उस व्यक्ति की पहिचान बने रहते है जबकि उसके आत्म चिंतन का यहाँ कही सवाल ही नहीं उठ पाता है |
आदमी अपने बारे में सोच ही कहां पाता है ,उसके सामने समाज परिवार और परम्पराओं के अनुसार काम लाद दिए जाते है बस वह उन्हीं आपूर्तियों में उलझा अपना जीवन ढ़ोता रहता है बाल्य अवस्था में उसका मानस तैयार किया जाने लगता है कि ,बड़ा आदमी बनेगा , कलेक्टर बनेगा ,डॉ बनेगा , या और कुछ, कोई माता पिता बच्चे को सत्य , अहिंसा, त्याग और संस्कार का पाठ पढ़ाता नहीं दिखाई दिया, न ही कोई अपने बच्चे को गीता का निष्कामप्रेम समझाता मिला, न ही जीवन की नश्वरता , और मोह में बंधे सारे नकली रिश्तों की व्याख्या करता मिला कोई , शायद परम्पराओं के हिसाब से उनके बड़ों ने भी यह तथ्य उन्हें नहीं बताये होंगें , अर्थात उन्होंने जो कुछ भी बताया वह संसार और जगत का बोध तो अवश्य था मगर वह स्वयं के बोध और आत्म चिंतन से कोसों दूर था |
मैं क्यों पैदा हुआ हूँ ?मेरे जीवन का लक्ष्य क्या है , आत्मा का सम्बन्ध किस हद तक सांसारिक उपलब्धियों से जुड़ा है ?ये तमाम प्रश्न सामान्यतः तब हमारे दिलो दिमाग में आते है जब हमारे पास जीवन के लिए समय ही नहीं होता ,मित्रो साधन और उपलब्धियां आपके लिये एक हद तक महत्वपूर्ण अवश्य है ,मगर जब वे आपके जीवन और मूल्यों से अधिक अपना महत्व निर्मित करने लगें ,तो आप निश्चित समझ लें कि वे ही आपके जीवन में अशांति , पाप और नाश का कारक बन कर आपको नष्ट कर देंगे ,
स्वयं का चिंतन और स्वयं की शक्तियों को जाग्रत करके जिन लोगो ने संसार में जीवन जिया है वे लोग सदियों से अमरत्व पा चुके है उन्हें समय की परिधि ने भी मुक्त कर दिया है ,शांति , सुख , आनंद और परमानंद का सम्बन्ध साधनों के ढेर से अधिक आत्म बोध और आत्मानुभूति में निहित है , आपका लक्ष्य , आपका क्रियान्वयन और आपका सोच जैसे जैसे धनात्मक और बड़ा होता जाएगा, वैसे वैसे संसार की हर उपलब्धि आपको छोटी लगने लगेगी और एक दिन आप स्वयं को उस शिखर पर पाएंगे जहाँ केवल आप आपका नैसर्गिक आनंद होगा और शायद आपके पास इस समय कुछ पाने को शेष ही नहीं होगा |
निम्न विचारों को अवश्य चिंतन में लाये
हम आज जिस समाज में खड़े है वहां हम केवल इस बात के लिए सदैव चिंतित रहते है कि , समाज का हर व्यक्ति श्रेष्ठता की तुलना में हमसे अधिक श्रेष्ठ न हो जाए , हमारी तमाम कोशिशें यही रहती है कि कैसे भीस्वयं को श्रेष्ठ साबित करने के लिए कुछ भीकिया जाए ,मगर स्वयं को इस रूप स्थापित किया जाए कि दूसरे उसकी तुलना नहीं कर सकें | इसी उधेड़ बुन में जीवन कब निकल जाता है यह अहसास ही नहीं हो पाता हमें , हमारे सारे जीवन का सार यही रह पाता है कि एक समूह जो हमारी प्रसंशा करता रहे , एक बनावटी परिवेश जिसमे हम स्वयं को श्रेष्ठ समझते रहे, और चाटुकारों से भरा छोटा सा हमारा दड़बा ,जिसमे हम स्वयं को सम्राट की तरह पाते है ,जीवन शनैः शनैःबीतता जाता है और हम अपने ही नशे मे चूर भ्रम पाले दुनियां से चले जाते है ,शायद यही जीवन का सत्य भी है |
मैं और मेरी उपलब्धिया बड़े अलग विषय है ,इस समाज में रहता हुआ व्यक्ति अपनी पहचान के लिए अपनी उपलब्धियों को दर्शाने की कोशिश करता रहता है , उसकी पहिचान के लिए बहुत बड़ी संपत्ति बड़े बड़े मकान बड़ी बड़ी गाड़ियां और ऐशो आराम का हर साधन होना आवश्यक होना चाहिए , उसकी पहिचान उसकी सम्पत्तियों के नाम से होती है , यह फार्म हाउस किसका है ओ हाँ बहुत बड़े आदमी है वो ,इसी प्रकार ३०० माले की बिल्डिंग , चार्टर प्लेन और हजारों साधनों की भीड़ ,आपकी पहिचान बनी रहती है ता उम्र ,
राजाओं महाराजाओं के विलास महल , नाट्य घर और राज सभाओं में कलाकारों और नृत्यकियों की हर रात चलने वाली प्रतियोगिताएँ ,बड़े बड़े राज्य प्रासादों में २४ घंटे जागते हरम और हजारों सेवादार , कहने का आशय यह कि धनबल , वैभव बल , रूपबल साधन और साधना बल ये सब उस व्यक्ति की पहिचान बने रहते है जबकि उसके आत्म चिंतन का यहाँ कही सवाल ही नहीं उठ पाता है |
आदमी अपने बारे में सोच ही कहां पाता है ,उसके सामने समाज परिवार और परम्पराओं के अनुसार काम लाद दिए जाते है बस वह उन्हीं आपूर्तियों में उलझा अपना जीवन ढ़ोता रहता है बाल्य अवस्था में उसका मानस तैयार किया जाने लगता है कि ,बड़ा आदमी बनेगा , कलेक्टर बनेगा ,डॉ बनेगा , या और कुछ, कोई माता पिता बच्चे को सत्य , अहिंसा, त्याग और संस्कार का पाठ पढ़ाता नहीं दिखाई दिया, न ही कोई अपने बच्चे को गीता का निष्कामप्रेम समझाता मिला, न ही जीवन की नश्वरता , और मोह में बंधे सारे नकली रिश्तों की व्याख्या करता मिला कोई , शायद परम्पराओं के हिसाब से उनके बड़ों ने भी यह तथ्य उन्हें नहीं बताये होंगें , अर्थात उन्होंने जो कुछ भी बताया वह संसार और जगत का बोध तो अवश्य था मगर वह स्वयं के बोध और आत्म चिंतन से कोसों दूर था |
मैं क्यों पैदा हुआ हूँ ?मेरे जीवन का लक्ष्य क्या है , आत्मा का सम्बन्ध किस हद तक सांसारिक उपलब्धियों से जुड़ा है ?ये तमाम प्रश्न सामान्यतः तब हमारे दिलो दिमाग में आते है जब हमारे पास जीवन के लिए समय ही नहीं होता ,मित्रो साधन और उपलब्धियां आपके लिये एक हद तक महत्वपूर्ण अवश्य है ,मगर जब वे आपके जीवन और मूल्यों से अधिक अपना महत्व निर्मित करने लगें ,तो आप निश्चित समझ लें कि वे ही आपके जीवन में अशांति , पाप और नाश का कारक बन कर आपको नष्ट कर देंगे ,
स्वयं का चिंतन और स्वयं की शक्तियों को जाग्रत करके जिन लोगो ने संसार में जीवन जिया है वे लोग सदियों से अमरत्व पा चुके है उन्हें समय की परिधि ने भी मुक्त कर दिया है ,शांति , सुख , आनंद और परमानंद का सम्बन्ध साधनों के ढेर से अधिक आत्म बोध और आत्मानुभूति में निहित है , आपका लक्ष्य , आपका क्रियान्वयन और आपका सोच जैसे जैसे धनात्मक और बड़ा होता जाएगा, वैसे वैसे संसार की हर उपलब्धि आपको छोटी लगने लगेगी और एक दिन आप स्वयं को उस शिखर पर पाएंगे जहाँ केवल आप आपका नैसर्गिक आनंद होगा और शायद आपके पास इस समय कुछ पाने को शेष ही नहीं होगा |
निम्न विचारों को अवश्य चिंतन में लाये
- समय की सीमितता पर पैनी नजर बनाये रखें और प्रयास यह हो कि ,जाता हुआ प्रत्येक पल जाते हुए आपको अपनी सार्थकता का परिचय अवश्य देता जाए , अन्यथा समय से पश्चाताप पैदा होने लगेगा |
- प्रतिदिन अपने बारे में अवश्य सोंचें ,साधन , शक्ति और बाह्य आवरण की रक्षा के लिए संसाधनों का एकत्रीकरण तो हो मगर उसके साथ उसके प्रयोग और उसके त्याग के लिए भी तैयारी बनाये रखनी चाहिए |
- मैं कोन हूँ ?मेरा उद्देश्य क्या है? मैकितना सफल हूँ? मुझे वास्तव में क्या करना चाहिए ?ये सब प्रश्न आप रोज अपने मन मष्तिष्क में दोहराते रहिये इससे आपके क्रियान्वयन में परिवर्तन आने लगेंगे |
- साधन उपभोग और एकत्रीकरण एक अबाध चलने वाला क्रम है , उससे समाज और बाह्य वातावरण में आपका कद अवश्य बढ़ सकता है, मगर यह अवश्य तय समझे कि उनके उपभोग के बाद आपकी आत्मा को ही यह निर्णय करना है की यह व्यर्थ रहा या सार्थक |
- संसाधनों के एकत्रीकरण का अभिमान आप से सम्पूर्ण शांति छीन सकता है क्योकि जो संपत्ति कल किसी और की थी वो आज आपकी है और कल किसी और की होनी है तो इसका अभिमान क्यों |
- धन , बल , साधन , सौंदर्य, और शक्ति सब शाश्वत है और इंसानी जीवन नश्वर है तो इन शक्तियों से इंसान का हारना तय ही तो है ऐसे में इनका अभिमान और एकत्रीकरण पूर्ण सोच के साथ होना चाहिए |
- सार्वभौमिक सत्य और ब्रह्माण्ड में पैदा होने वाला हर व्यक्ति किसी न किसी कारण से श्रेष्ठता सिद्ध करता रहता है आप उसकी श्रेष्ठता अनदेखी और अपनी श्रेष्ठता का बखान न करें |
- त्याग , समभाव और दूसरों के प्रति प्रेम का भाव आपको सहज शांति दे सकता है क्योकि जैसे जैसे आप दूसरों को सुख देने को तत्पर होजाएंगे आपको स्वयं की अात्मा से सुख का अनुभव होने लगेगा |