Friday, January 9, 2015

आत्म- बोध (self realization)

आज चारों ओर  चहल पहल थी एक बड़े मंच पर खूब सजावट थी रंग बिरंगे कपड़ों में लोग अपने अपने शिष्यों के समूह के साथ आते जा रहे थे अत्यंत महंगे  सूटों , गाड़ियों और वैभव के अनंत साधनों  के साथ   विद्वान आते जा रहे थे और सब  स्वयं को ऊँचा बताने की चेष्टा में लगे थे , कुछ अपनी लम्बी लम्बी गाड़ियों के सहारे स अपने अनुयाइयों को दिशा निर्देशित कररहे थे , कुछ अपने वस्त्रों के चटकीले रंगों के साथ अपने समूह का आकर्षण केंद्र बन गए थे, वहीँ दूर इन सब मानसिकताओं से दूर एक कोने में एक युवक अपनी बारी की प्रतीक्षा में बैठा था ,पुराने किन्तु धवल वस्त्र और एक गहन चिंतन  में  यदा  कदा  हंसी की कोई रेखा होठों पर आजाती थी अपने गुरु , विचारो और लक्ष्य से आबद्ध उसका समूचा अस्तित्व बहुत शांत और तेजस्वी था और अचानक उसका नाम पुकारा  गया और उसने अपने विचारों से वो अजस्र धारा प्रवाहित की जिसने  भारतीय इतिहास को सराबोर कर दिया ,उस युवा  की धर्म संसद  के विचारों के सामने नत मस्तक हो गया सम्पूर्ण विश्व ,यही युवा था जिसे कभी विवेकानंद , नरेंद्र आदि नामों से जाना गया | आप जानते है  उसकी मूल शक्ति थी आत्म- बोध

भारतीय दर्शन में यह स्पष्ट है  कि मनुष्य  प्रकृति का एक ऐसा सशक्त भाग है जिसमे  अपरमित  शक्ति है और वह ब्रह्माण्ड का सबसे गतिशील और परिवर्तन शील तत्त्व भी है आत्मा से अमरत्व प्राप्त उसका स्वरुप कर्म के सिद्धांत पर आधारित है धर्म  और भारतीय संस्कृति यह जानती है कि उस परम शक्ति जिसे ब्रह्म कहा गया है उसका प्रत्येक जीवमे वास है ,मनुष्य  का जीवन मरण का चक्र निरंतर चलता रहता है ,और बार बार उसका जन्मऔर  मृत्यु भी होती रहती है इस प्रकार उसका क्रम तब तक चलता रहता है जबतक वह मोक्ष को प्राप्त नहीं हो जाता ,अनेक धर्माचार्य मानते है कि मनुष्य अपने कर्मों के चक्र को निम्न  अवस्थाओं में जीता है
  • वर्तमान  कर्म
  • क्रियमाण कर्म
  • संचित कर्म 
  • प्रारब्ध कर्म 
इन सब कर्मों की आपूर्ति और भोग्यो को भोगते हुए उसे अपने मोक्ष बिंदु की तरफ जाना होता है और यही सम्पूर्ण दर्शन  की मीमांसा करता है भारतीय धर्म और  यही है भारतीय संस्कृति का मूल |

आज जब विकास और उन्नति के लिए सम्पूर्ण विश्व क्रिया शील है तब हर इंसान अपने आपको श्रेष्ठ सिद्ध करने की होड़ में लगा दिखाई देता है उसे ज्ञान , साधनों और परिवार ,समाज तथा सभ्यता के नाम पर आदमी आदमी में प्रतियोगिता खड़ी हो गयी है  , हर व्यक्ति स्वयं को ऊँचा  बताने की चेष्टा में दूसरों को छोटा साबित करने में लगा है ,
उसके बड़े होने के लिए सामने वाले को छोटा सिद्ध करना आवश्यक सा दिखाई देने लगा है , उसकी अनंत कामनाओं के जाल इतने सशक्त होते जा रहे है कि  वह उनमे और अधिक फँसता चला जा रहा है , वह शांति के स्थान पर यह मान बैठा है   कामनाओं की आपूर्तियों ही सर्वोत्कृष्ट है |


 मनुष्य  धन ,बल ,ऐश्वर्य ,और भौतिक श्रेष्ठता के आयामों में पूर्ण होकर ही  श्रेष्ठ सिद्ध हो सकता है , केवल यही भ्रम पाले  रखता है , इसी दौड़ में  शामिल होकर उसका अस्तित्व ही एक ऐसा खिलौने बन जाता है जिसे चाबी भरने के बाद भागना होता है, चाहे वो विकास हो या पतन ये मालूम ही कहाँ होता है उसे ,क्योकि वह  आदर्शों से कोसो दूर खड़ा होता है केवल अपनी पीठ थपथपाने के लिए जबकि ईश्वर ने मनुष्य को ऐसा बनाया है की वह अपनी पीठ थपथपा ही नहीं सकता 


 आत्म बोध के आभाव में जब जीवन आगे बढ़ता है तो  कामनाएं और प्रबल होने लगती है भविष्य के प्रति दृष्टिकोण भय पैदा करने वाला होने लगता है जीवन की दुसम्भावनाएं अधिक परेशान करने लगती है , आत्म विश्वास में कमी```आने लगती है, हर पल यह लगने लगता है कि  जीवन में कही मेरे से अधिक साधन ,सौंदर्य , बल ऐश्वर्य दूसरे पर न होजाए , कहीं मैं कंगाल न हो जाऊं या कहीं मेरे सम्बन्धी मुझसे किसे भी अर्थ में अपने को बड़ा सिद्ध न कर दें,ये सब मानसिकताएं व्यक्ति को नकारात्मक चिंतन की ओर मोड़ देती है, वह जो है उसका अभिमान करने के स्थान पर, जो नहीं  है उसका रोना रोता रहता है ,समय का  चक्र बस इतना करता है कि  उसे उस बिंदु तक नहीं पहुँचने देता जहाँ से वास्तव में उसे संतोष का परम स्तर मिलने वाला होता है

आत्म बोध और धर्म संस्कृति वर्त्तमान में विस्मय कारी शब्द जैसे लगने लगे है , तथा कथित  सभ्य समाज और सुसंस्कृत कहे जाने वाले परिवारों को अपने लिए और अपने बच्चों के लिए आदर्शों सत्य और सुसंस्कृत मानदंडों की आवश्यकता तो  है परन्तु स्वयं उनके पास अपने यह आचरण करने के  ये सारे विषय रूढ़िवादी व्यवस्था जैसे है और विकास में ऐसा आचरण असभ्य होता है , अत्यधिक विकसित व्यवस्था में स्वयं को जानने पहिचानने के स्थान पर कैसे भी लूट खसोट कर विकसित हो जाना पर्याप्त माना जाता है, अब क्या आप अपनी आगामी पीढ़ी के वे ही कर्म करने से परेशान क्यों है, कल आपने जिन मूल्यों को उपेक्षित किया था आज आपकी पीढ़ी भी उन सब मूल्यों को उपेक्षित करके आपको आईना दिखा रही है तो शिकायत कैसी ,आवश्यकता है आज से अपने आप पर पुनर्चिन्तन करने की जिससे भविष्य के प्रति सकारात्मक चिंतन बनाया जा सके

भारतीय दर्शन और संसार के प्रत्येक दर्शन में सबसे बड़ा भेद यह है  कि वे समस्त दर्शन किसी ईश्वरीय शक्ति की उपासना पद्धति में उस सर्वोच्च सत्ता की आराधना में लगे दिखाई देते है और  उनका  अनुयायी अपने ईश्वर को सर्वोच्च बताना चाहता है और वह सम्प्रदाय को आरम्भ करने वाले माने जाते है जबकि भारतीय धर्म में यह स्पष्ट है  कि एक काल पुरुष जिसमे सम्पूर्ण और अनंत ब्रह्माण्ड समाये हुए हैं वही पूर्ण ब्रह्म है | 

" अलग अलग धर्म के अनंत सम्प्रदाय यह मानते है कि सम्पूर्ण प्रकृति और संसार में वो समाया है जबकि भारतीय सांस्कृतिक प्रतिमान मानते है कि वह काल पुरुष ही अखंड और अन्नंत कालों और ब्रह्माण्डों  को धारित किये हुए है और उसके छोटे छोटे अवयव प्रकृति के जड़ चेतन स्वरुप के छोटे छोटे शक्ति केंद्र है ,जब तक वह शक्ति आवरणों और सुरक्षा के घेरे में होती है तबतक उसकी शक्ति का ज्ञान ही कहा हो पाता है जब वह पूर्ण विधि और आवरण रहित होकर अपनी सर्वोच्च सत्ता से जुड़ जाती है तब वह परम शक्ति का केंद्र हो जाती है जिसका आकलन करना तक असंभव है "

जीवन के दृष्टी कोण में निम्न को याद रखिये 

  • जीवन के सच्चे अर्थों को जानने के लिए उसके आदि अंत और उसमे अपना योगदान उसपर विचार करके समय बद्ध कार्यक्रम का चित्र बनाइये और उसमे रंग भरिये | 
  • जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टी बनाये रखिये और ये अवश्य ध्यान रखिये कि आपके द्वारो जो दूसरों का आकलन किया जारहा है वैसा ही दूसरे आपके प्रति विचार कररहे होंगे | 
  • जीवन के प्रति ऐसा दृष्टी कोण बनाये रखें  कि आप एक न्यासी की भांति इस शरीर और मन के स्वामी है और आपको अपने हर कार्य और व्यवहार का हिसाब देना ही होगा | 
  • आत्मा की अमरता और शरीर की नश्वरता के बोध और उनके लिए एकत्रित किये जाने वाले गुण धर्मों पर निरंतर विचार किया जाता रहना चाहिए | 
  • स्वयं की सकारात्मक धारणा को सदैव बल देते रहना चाहिए क्योकि आपके द्वारा इन्ही प्रयासों से भौतिक  और अभौतिक उपलब्धियां प्राप्त हो पाएंगी | 
  • भविष्य और दूसरों के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण  रखना चाहिए क्योकि यदि आने नकारात्मक दृष्टी कोण अपनाया तो वाही आपका अस्तित्व हो सकता है | 
  • जीवन में मनुष्य ईश्वर की सर्वोत्तम कृति है और उसमें अपरमित शक्ति भी है उसे अपनी शक्तियों के विकास के  चिंतन करना होगा जिससे उसका सर्वांगीण विकास हो सके | 
  • आपके पास जो है उसका गर्व करें परन्तु आपके पास जो है वह दूसरो को छोटा और हीं बताने के लिए ना हों अन्यथा आपकी सारी शक्तियां आपको  स्वयं नष्ट कर देंगी | 
  •  स्वयं एक प्रतियोगिता ही तो है यदि  आदर्शों और नैतिकता में आप शून्य रहे तो आप स्वयं  सकते है क्योकि आपने भौतिक साधनों की साधना की और दूसरों ने सत्य और आदर्शों की | 
  • स्वयं का आंकलन करते रहिये कहीं भी जीवन के धनात्मक मूल्यों का ह्रास करने वाले कार्यों को प्रश्रय न दें यदि कहीं आपको उन मूल्यों की नकारात्मकता दिखे तो तुरंत अपना रास्ता बदलिये |

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