स्वयं की खोज और जीवन(Self realization and life)
मलया गिरि का राजा पुष्प सेन हजारों यद्धों का अजेय सम्राट सिद्ध हुआ ,परन्तु था बहुत घमंडी ,किसी के अस्तित्व को न मानने वाला ,राजा अपनी चहेती रानी को लकवा मार जाने के कारण बहुत दुखी था, सारे इलाज बे असर हो गए ,थे राजा को लगा वो इतना महान और ताकतवर होकर भी निरीह सा है ,राज गुरु कल ही कह रहे थे पानी जैसी है जिंदगी कभी भी जीवन मृत्यु हमें प्रभावित कर सकती है ,राजा बेचैनी और सोच में पड़ गया मेरे बाद मेरे परिवार संपत्ति का क्या होगा , एक बार अपने गुप्तचरों और सैनिको के साथ आखेट पर गया ,रास्ते में घोर जंगल में उन्हें दिशाभ्रम हो गया, तीन दिन चलते हुए होगये ,सारा पानी खाना ख़त्म हो गया और एक भयानक तूफ़ान में भटकते भटकते बेहोश हो गए , बेहोशी के अंतिम छणों में राजा को कभी लगा की वो समुद्र की गहराइयों में ,उससे सैकड़ों गुना बड़े जीवो से स्वयं को बचने का प्रयत्न कररहा है ,कभी उसने देखा कि हजारों चीटियां गर्व से आपने गंतव्य को चली जारही है ,उसने पहाड़ों का गिरना ,ग्लेशियर के टूटने की भयावह आवाजें और समुद्री तूफ़ान के बड़े तांडव ,जंगल में लगी आग के स्वप्नों में स्वयं को जीवन रक्षा करते देखा, एक निरीह, बेचारे की भाँति ,जब उसको होश आया तो एक सन्यासी सामने था ,कुछ फल शीतल जल दियासन्यासी ने उसे,सन्यासी ने कहा पुत्र तुम और तुम्हारे साथी बेहोश पड़े थे इस लिए आपको यहाँ लाया हूँ |
राजा घबराहट में बोला मुझे बचाइए मैंने भयानक स्वप्न देखे है, मुझे जीवन का भय लग रहा है,सन्यासी ने कहा राजा मैं सब जानता हूँ ,तू अपने भय से मुक्त हो जा ,तूने स्वप्न में जो जल पहाड़ जंगल अग्नि और तूफानी हवाये देखी है ,वे इस प्रकृति के पांच तत्त्व एवं धरती के शक्तिशाली अवयव है ,ये पांच तत्त्व ही महँ शक्तिशाली है ,पुत्र ये सब तेरे अहम् और युद्धों के स्वभाव का जबाब था कि तू वास्तव में अपने को पहचानें , हर जगह तेरा अहम् तुझे व्याकुल करता रहा है ,पुत्र मन से अहम् निकल जाए तो उस चीटीं की तरह हम भी गर्व से चल सकते है,राजा निरुत्तर और शर्मिंदा था ,सन्यासी ने कहा पुत्र सुबह मैंने हजारों फलों में से ४ फल लिए तीन तुम लोगो को दिए ,एक मैंने खाया कल ईश्वर फिर देगा ,राजा समझ गया की साधु यही कह रहा है, हे राजन मैं तो शाम तक की चिंता नहीं करता तू, क्यों परेशां है ,पीढ़ियों के इंतजाम में | अचानक राजा की सेनाये वहां आ गई अपने गले का रुद्राक्ष देते हुए साधु ने कहा , जा अपनी रानी को पहना देना वो ठीक हो जायेगी, यह कहकर साधु हिमालय की हिमाच्छादित घाटियों पर चल दिया राजा निरुत्तर भरी आँखों से उसे चरण वंदन करता रहा |
सुख- दुःख जय -पराजय लाभ- हानि सब ही तो तुलनात्मक है ,जब तक आपको किसी नकारात्मकता का अनुभव नहीं है तो आपको सकारात्मकता भी व्यर्थ लगने लगती है ,एक गुरु से शिष्य ने कहा गुरु देव जीवन में आराम ही नहीं है सब ख़त्म होगया है , गुरु कुछ नहीं बोले अचानक वही शिष्य रोता हुआ आया मै जल गया हूँ गुरु ने तुरंत मलहम लगाया पुचकारा हाथ फेरा और पूछा अब अच्छा लग रहा है वो बोला अब आराम है मलहम चमत्कारी है आनंद आगया मै तो मर ही गया था ,अचानक गुरु की और देख कर खुद शर्मा गया शिष्य ,गुरु ने कहा पुत्र ईश्वर जो दे रहा है , जो कररहा है , जैसे रख रहा है हम सब उसे सहर्ष स्वीकारें तो जीवन आनंद है, पुत्र मुर्ख बनाकर स्वार्थ सिद्ध करने वाले केवल धोखा स्वयं धोखा। यातनाएं और ही पाते है वे खुद से ही शिकायते करने लगे तो यही अविश्वास स्वयं को न जानने की भूल के कारण दुःख पराजय हानि जैसा होकर हमें नकारात्मक बना देता है |
आपका जन्म का कारण क्या है क्या आप जीवन में किसी उद्देश्य को लेकर आये है और क्या आप उसके लिए कुछ सकारात्मक पहल कर पाए है ,जीवन को उसके उद्देश्य से परिचित करना बड़ा कठिन और जटिल कार्य है ,कुछ लोग जो अपना उद्देश्य तय भी कर पाए है उनके सामने उसको क्रियान्वित करने चिनौती और अधिक बड़ी समस्या के रूप में खड़ी हो जाती है ,क्योकि उसके क्रियान्वयन की समस्याएँ जीवन के सामान्य कार्यों और उपलब्धियों से अधिक कठिन होती है ,उसके संकल्प इतने अधिक दृण होते है जिनके साथ और कुछ चल ही नहीं सकता , परन्तु हिन्दू दर्शन कहता है यदि आप अनासक्त भाव से, जीवन के संकल्पों को क्रियान्वित कर पाए तो जीवन आपको एक दिन अवश्य अपने लक्ष्य के उच्चतम शिखर पर अवश्य ले जाएगा |
सन्यासी ,योगी ,जितेन्द्रिय ,महात्माओं और उच्च धार्मिक विचारकों और एक सामान्य आदमी,धन ,व्यक्ति संपत्ति ,तथा भौतिकता के पीछे भागते लोगो में ,फर्क केवल एक तथ्य का है ,वह है आत्म बोध , जो जिज्ञासु की भाँती जीवन पूर्ण करने में लगा है, वह प्रथम श्रेणी का है और जो सुख धन वैभव और भौतिक लिप्साओं के जाल में लिपटा भागा चला जारहा है वह दूसरी श्रेणी में आता है ,मित्रों इसके जीवन की नियति ही एक भोग्य है और बीच बीच में थोड़े सुस्ताने को यह सुख मानता है यही इसका सबसे बड़ा भ्रम है ,स्वयं अपने आपको धोखे में रख कर अपनी अकर्मण्यता को दूसरों पर थोपते रहना कोई हल नहीं हुआ न , वहां हर असफलता का जिम्मेदार भी यह स्वयं ही होता है |
अपने आचरण में सबको धोखा देते देते हमारा मन स्वयं को भी नहीं छोड़ता वह हमें ही धोखा देने लगता है परिणामतः हम स्वयं की शांति खोकर एक मनोरोग के रोगी होते जारहे है ,शांति, सौहार्द,दया , सकारात्मकता ,सत्य ,परमार्थ और सहष्णुता सब ख़त्म होकर हम एक बहरे व्यक्ति की भांति अपना प्रलाप जारी रखते है , यही सामान्य जीवन के वो पहलू है जो आदमी को चारो तरफ से जकड़ कर नाकारा अशांत और यातनाओं में सिद्ध किये हुए है| बाह्य संसाधनों। अपनी शारीरिक मानसिक जटिलताओं के कारण हमारा स्वाभाव केवल स्वयं के स्वार्थ सिद्ध करने का रह गया है. स्वयं को बड़ा बताने की चेष्टा और अपने आपको आदर्श बताते हुए हम सारी ऋणात्मकताओं को दूसरे पर थोपने के आदि हो रहे है , क्रोध , द्वेष , वैमनस्यता एवं अपनी मनमानी करके हम स्वयं को श्रेष्ठ समझ रहे है ,परिणाम हम अपने खोदे हुए गड्ढे में फिसलते जा रहे है
स्वयं का साक्षात्कार बड़ा अनोखा है ग्यानी आत्म बोध ,आत्मानुभूति , और साक्षी भाव आदि नामों से जानते है जबतक स्वयं के भीतर गहरे में नहीं उतरोगे ,तबतक अपनी खोज नहीं कर पाओगे ,और न ही तुम स्वयं की नकारात्मकता और सकारात्मकता के पहलुओं को समझ पाओगे ,संसार को सही मायने में समझा हुआ या हारा हुआ इंसान जब उसके आधारभूत स्वभाव को समझ गया ,तब उससे शिकायत ही नहीं रही सारा चिंतन स्वयं के चारो तरफ घूमने लगा परिणाम यहीं से आरम्भ हो गया स्वयं की खोज का प्रथम अध्याय |
जब मन ने स्वयं का साक्षी भाव जागृत किया तब, हमारे व्यक्तित्व की कमियां ही कमियां हमारे सामने खड़ी हो गई, स्वयं को परिष्कृत करने हेतु अनेक संकल्प और क्रियान्वयन के बाद, मन -बुद्धि को बाँध कर स्वयं की शक्ति को जागृत किया गया, तब कही जाकर धीरे धीरे सब सत्य सामने आने लगा ,संसार का हर सम्बन्ध भावों से परे भूख और फिर भूख की आपूर्ति समझ आया ,जबकि सुख दूसरों पर या भौतिक संसाधनों में न होकर मुझ में ही निहित था , परन्तु इस सुख का अनुभव भाषा और व्याख्या से परे ही रहेगा और इसके बाद किसी सुख की आवश्यकता ही नहीं होगी |
निम्नांकित का प्रयोग करें और देखिये चमत्कार
मलया गिरि का राजा पुष्प सेन हजारों यद्धों का अजेय सम्राट सिद्ध हुआ ,परन्तु था बहुत घमंडी ,किसी के अस्तित्व को न मानने वाला ,राजा अपनी चहेती रानी को लकवा मार जाने के कारण बहुत दुखी था, सारे इलाज बे असर हो गए ,थे राजा को लगा वो इतना महान और ताकतवर होकर भी निरीह सा है ,राज गुरु कल ही कह रहे थे पानी जैसी है जिंदगी कभी भी जीवन मृत्यु हमें प्रभावित कर सकती है ,राजा बेचैनी और सोच में पड़ गया मेरे बाद मेरे परिवार संपत्ति का क्या होगा , एक बार अपने गुप्तचरों और सैनिको के साथ आखेट पर गया ,रास्ते में घोर जंगल में उन्हें दिशाभ्रम हो गया, तीन दिन चलते हुए होगये ,सारा पानी खाना ख़त्म हो गया और एक भयानक तूफ़ान में भटकते भटकते बेहोश हो गए , बेहोशी के अंतिम छणों में राजा को कभी लगा की वो समुद्र की गहराइयों में ,उससे सैकड़ों गुना बड़े जीवो से स्वयं को बचने का प्रयत्न कररहा है ,कभी उसने देखा कि हजारों चीटियां गर्व से आपने गंतव्य को चली जारही है ,उसने पहाड़ों का गिरना ,ग्लेशियर के टूटने की भयावह आवाजें और समुद्री तूफ़ान के बड़े तांडव ,जंगल में लगी आग के स्वप्नों में स्वयं को जीवन रक्षा करते देखा, एक निरीह, बेचारे की भाँति ,जब उसको होश आया तो एक सन्यासी सामने था ,कुछ फल शीतल जल दियासन्यासी ने उसे,सन्यासी ने कहा पुत्र तुम और तुम्हारे साथी बेहोश पड़े थे इस लिए आपको यहाँ लाया हूँ |
राजा घबराहट में बोला मुझे बचाइए मैंने भयानक स्वप्न देखे है, मुझे जीवन का भय लग रहा है,सन्यासी ने कहा राजा मैं सब जानता हूँ ,तू अपने भय से मुक्त हो जा ,तूने स्वप्न में जो जल पहाड़ जंगल अग्नि और तूफानी हवाये देखी है ,वे इस प्रकृति के पांच तत्त्व एवं धरती के शक्तिशाली अवयव है ,ये पांच तत्त्व ही महँ शक्तिशाली है ,पुत्र ये सब तेरे अहम् और युद्धों के स्वभाव का जबाब था कि तू वास्तव में अपने को पहचानें , हर जगह तेरा अहम् तुझे व्याकुल करता रहा है ,पुत्र मन से अहम् निकल जाए तो उस चीटीं की तरह हम भी गर्व से चल सकते है,राजा निरुत्तर और शर्मिंदा था ,सन्यासी ने कहा पुत्र सुबह मैंने हजारों फलों में से ४ फल लिए तीन तुम लोगो को दिए ,एक मैंने खाया कल ईश्वर फिर देगा ,राजा समझ गया की साधु यही कह रहा है, हे राजन मैं तो शाम तक की चिंता नहीं करता तू, क्यों परेशां है ,पीढ़ियों के इंतजाम में | अचानक राजा की सेनाये वहां आ गई अपने गले का रुद्राक्ष देते हुए साधु ने कहा , जा अपनी रानी को पहना देना वो ठीक हो जायेगी, यह कहकर साधु हिमालय की हिमाच्छादित घाटियों पर चल दिया राजा निरुत्तर भरी आँखों से उसे चरण वंदन करता रहा |
सुख- दुःख जय -पराजय लाभ- हानि सब ही तो तुलनात्मक है ,जब तक आपको किसी नकारात्मकता का अनुभव नहीं है तो आपको सकारात्मकता भी व्यर्थ लगने लगती है ,एक गुरु से शिष्य ने कहा गुरु देव जीवन में आराम ही नहीं है सब ख़त्म होगया है , गुरु कुछ नहीं बोले अचानक वही शिष्य रोता हुआ आया मै जल गया हूँ गुरु ने तुरंत मलहम लगाया पुचकारा हाथ फेरा और पूछा अब अच्छा लग रहा है वो बोला अब आराम है मलहम चमत्कारी है आनंद आगया मै तो मर ही गया था ,अचानक गुरु की और देख कर खुद शर्मा गया शिष्य ,गुरु ने कहा पुत्र ईश्वर जो दे रहा है , जो कररहा है , जैसे रख रहा है हम सब उसे सहर्ष स्वीकारें तो जीवन आनंद है, पुत्र मुर्ख बनाकर स्वार्थ सिद्ध करने वाले केवल धोखा स्वयं धोखा। यातनाएं और ही पाते है वे खुद से ही शिकायते करने लगे तो यही अविश्वास स्वयं को न जानने की भूल के कारण दुःख पराजय हानि जैसा होकर हमें नकारात्मक बना देता है |
आपका जन्म का कारण क्या है क्या आप जीवन में किसी उद्देश्य को लेकर आये है और क्या आप उसके लिए कुछ सकारात्मक पहल कर पाए है ,जीवन को उसके उद्देश्य से परिचित करना बड़ा कठिन और जटिल कार्य है ,कुछ लोग जो अपना उद्देश्य तय भी कर पाए है उनके सामने उसको क्रियान्वित करने चिनौती और अधिक बड़ी समस्या के रूप में खड़ी हो जाती है ,क्योकि उसके क्रियान्वयन की समस्याएँ जीवन के सामान्य कार्यों और उपलब्धियों से अधिक कठिन होती है ,उसके संकल्प इतने अधिक दृण होते है जिनके साथ और कुछ चल ही नहीं सकता , परन्तु हिन्दू दर्शन कहता है यदि आप अनासक्त भाव से, जीवन के संकल्पों को क्रियान्वित कर पाए तो जीवन आपको एक दिन अवश्य अपने लक्ष्य के उच्चतम शिखर पर अवश्य ले जाएगा |
सन्यासी ,योगी ,जितेन्द्रिय ,महात्माओं और उच्च धार्मिक विचारकों और एक सामान्य आदमी,धन ,व्यक्ति संपत्ति ,तथा भौतिकता के पीछे भागते लोगो में ,फर्क केवल एक तथ्य का है ,वह है आत्म बोध , जो जिज्ञासु की भाँती जीवन पूर्ण करने में लगा है, वह प्रथम श्रेणी का है और जो सुख धन वैभव और भौतिक लिप्साओं के जाल में लिपटा भागा चला जारहा है वह दूसरी श्रेणी में आता है ,मित्रों इसके जीवन की नियति ही एक भोग्य है और बीच बीच में थोड़े सुस्ताने को यह सुख मानता है यही इसका सबसे बड़ा भ्रम है ,स्वयं अपने आपको धोखे में रख कर अपनी अकर्मण्यता को दूसरों पर थोपते रहना कोई हल नहीं हुआ न , वहां हर असफलता का जिम्मेदार भी यह स्वयं ही होता है |
अपने आचरण में सबको धोखा देते देते हमारा मन स्वयं को भी नहीं छोड़ता वह हमें ही धोखा देने लगता है परिणामतः हम स्वयं की शांति खोकर एक मनोरोग के रोगी होते जारहे है ,शांति, सौहार्द,दया , सकारात्मकता ,सत्य ,परमार्थ और सहष्णुता सब ख़त्म होकर हम एक बहरे व्यक्ति की भांति अपना प्रलाप जारी रखते है , यही सामान्य जीवन के वो पहलू है जो आदमी को चारो तरफ से जकड़ कर नाकारा अशांत और यातनाओं में सिद्ध किये हुए है| बाह्य संसाधनों। अपनी शारीरिक मानसिक जटिलताओं के कारण हमारा स्वाभाव केवल स्वयं के स्वार्थ सिद्ध करने का रह गया है. स्वयं को बड़ा बताने की चेष्टा और अपने आपको आदर्श बताते हुए हम सारी ऋणात्मकताओं को दूसरे पर थोपने के आदि हो रहे है , क्रोध , द्वेष , वैमनस्यता एवं अपनी मनमानी करके हम स्वयं को श्रेष्ठ समझ रहे है ,परिणाम हम अपने खोदे हुए गड्ढे में फिसलते जा रहे है
स्वयं का साक्षात्कार बड़ा अनोखा है ग्यानी आत्म बोध ,आत्मानुभूति , और साक्षी भाव आदि नामों से जानते है जबतक स्वयं के भीतर गहरे में नहीं उतरोगे ,तबतक अपनी खोज नहीं कर पाओगे ,और न ही तुम स्वयं की नकारात्मकता और सकारात्मकता के पहलुओं को समझ पाओगे ,संसार को सही मायने में समझा हुआ या हारा हुआ इंसान जब उसके आधारभूत स्वभाव को समझ गया ,तब उससे शिकायत ही नहीं रही सारा चिंतन स्वयं के चारो तरफ घूमने लगा परिणाम यहीं से आरम्भ हो गया स्वयं की खोज का प्रथम अध्याय |
जब मन ने स्वयं का साक्षी भाव जागृत किया तब, हमारे व्यक्तित्व की कमियां ही कमियां हमारे सामने खड़ी हो गई, स्वयं को परिष्कृत करने हेतु अनेक संकल्प और क्रियान्वयन के बाद, मन -बुद्धि को बाँध कर स्वयं की शक्ति को जागृत किया गया, तब कही जाकर धीरे धीरे सब सत्य सामने आने लगा ,संसार का हर सम्बन्ध भावों से परे भूख और फिर भूख की आपूर्ति समझ आया ,जबकि सुख दूसरों पर या भौतिक संसाधनों में न होकर मुझ में ही निहित था , परन्तु इस सुख का अनुभव भाषा और व्याख्या से परे ही रहेगा और इसके बाद किसी सुख की आवश्यकता ही नहीं होगी |
निम्नांकित का प्रयोग करें और देखिये चमत्कार
- यहाँ सारे सम्बन्ध आवश्यक है मगर सबकी अपनी अपनी सीमाएं है , यहाँ कोई भी बहुत करीब और बहुत दूर नहीं है ,सबकी अपनी अपनी वासनाएं इच्छाएं है जिनके अंत का कोई छोर नहीं है |
- जबतक आपके सुख की चाबी दूसरों हाथ में होगी तबतक आपको सुख मिलाना ही नहीं है बस आपका उपयोग ही होना है ,कोई सहानुभूति के नाम पर ,कोई अधिकार दिखा कर ,या मज़बूरी बताकर ,इनसे दूर रहें
- मानसिक शारीरिक और सामाजिक आपूर्तिओं का संघर्ष आपसे हर तरह की शांति छीन लेगा ,क्योकि आप इनसबके गुलाम बने बैठें है और इनको नियंत्रण के बगैर नियंत्रित नहीं किया जा सकता | आवश्यकता है की इनकी सीमाएं बनाइये |
- हर रोज अपनी अंतरात्मा की मौन साधना अवश्य करें कि आपके साथ क्या क्या अच्छा हुआ है, जीवन की सकारात्मकता और कैसे बढ़ने जा रही है |
- प्रति दिन एकांत में बैठ कर स्वयं को पढ़ने का प्रयत्न करें और आज जो कमियां हुई है कल वो फिर न हों संकल्प लें |
- जीवन से किसी भी चीज के आदि होने का स्वभाव ख़त्म करें ,क्योकि यही से कमियां आपको अपना गुलाम बना लेती है |
- ईश्वर पर विश्वास रखे जिन स्थितियों पर आपका वश न हो, उनका असमय शोक न मनाये ,क्योकि शोक उनका मनाये जहाँ कुछ किया जा सकता था पर नहीं किया गया |
- स्वयं को जितना सहज बना सकते है बनाइये, क्योकि जैसे ही आप व्यवहार में जटिलताएं लाएंगे आपका सम्पूर्ण अस्तित्व और यातनाओं से भर जाएगा |
- सत्य ,सरलता और दूसरों के प्रति दया सहष्णुता का भाव रखिये इससे आपको संतुलित रहने की कला वैसे ही प्राप्त हो जायेगी ||
- प्रत्येक व्यक्ति के प्रति नकारात्मक सोच को ख़त्म कर दें ,और भविष्य के प्रति संकल्प लें और स्वयं को किसी को भी बुरा भला कहने से बचाएं |
- आपका लक्ष्य केवल आपकी नकारात्मकता से प्रभावित होता है , मन के दृण निश्चय , संकल्प की साधना में लगे कोई भी व्यक्ति को कोई व्यक्ति परिस्थित बाधा पहुंचा ही नहीं सकती |
- स्वयं की सक्षमता एवं अक्षमता के लिए कोई परिस्थिति कोई व्यक्ति जिम्मेदार हो ही नहीं सकता अतः स्वयं की क्रियान्वयता पर पुनर्विचार कर आत्मा की गहराइयों से स्वयं को पहिचाने हर सफलता आपके क़दमों में ही होगी |
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