Thursday, June 21, 2018

उम्र -प्रेम और कर्त्तव्य का समन्वय (coordination of age-love and duty)

उम्र -प्रेम और कर्त्तव्य का समन्वय (coordination of age-love and duty)


सोमेश ने आज ही  सौराष्ट्र के एक नगर में जिलाधीश का पद ग्रहण किया था, पत्नी और उनके तमाम घरवाले नए कलेक्टर साहब के पद ग्रहण की ख़ुशी में मग्न थे ,बड़े बड़े अफसर अपनी आमद दर्ज करा रहे थे, पिताजी का कल ही पत्र आगया था बेटा,  बुवाई चलरही है ,बादमे तेरी माँ और मै आ जाऊँगा ,कुछ ज्यादा आग्रह भी नहीं किया था सोमेश ने , पत्नि ठीक ही कहती है कि दुनियां का हर बाप अपनी संतान के लिए वो सब करता है ,जो उसके पिता ने किया है, आई आई  टी की डिग्री पूरी करने में भी वो २-३ बार ही गया था घर, अब मन नहीं लगता  गांव में, एक दो दिन अपनी पुरानी   सफ़ेद अम्बेस्डर गाड़ी चलाई और फिर जा पहुंचा कॉलेज ,पैसे की जब जैसी जरूरत पडी वो बिना मांगे आजाता था ,और सयोग की बात यह की उसकी शादी भी कॉलेज  के पास के नगर में  ही हो गई थी , वहां आना जाना ज्यादा होता था और जीवन की नई  करवट थी, कि वह आज कलेक्टर के पद पर  बहुत गौरवान्वित था | माँ -पिताजी आये और चलेगये सब ठीक ही  तो था, न कोई शिकायत थी ,न कोई उम्मीद, बस एक मूक प्रश्न था, कि क्या बेटा हमें  कभी मन से याद  किया तूने  या नहीं ,जाते में  आंसुओं से  मूक आवाज  बहुधा दब जाती  थी


 एक रोज अचानक पिताजी के मित्र शर्मा अंकल दिखे वोभी पिताजी वाली अम्बेसेडर गाड़ी में बड़े आश्चर्य के साथ सोमेश ने उन्हें बुलाया पांव छुए, ऑफिस ले गया और आश्चर्य भाव से पूछा ये गाड़ी अंकल आपके पास ,पापा कैसे है सब ठीक है न , शर्मा अंकल ने आश्चर्य से पूछा बेटा चार पांच वर्षों से तुम गाँव नहीं गए क्या ,हाँ है बड़ी व्यस्तता  नहीं जा पाया ,कोई प्रॉब्लम है क्या, नहीं बेटे ,अब सुनो वह कहानी जो आपको कभी पापा ने नहीं बताई ,बेटा तुम्हारी एडमिशन के समय पापा ने अपनी सारी  प्रोविडेंट फण्ड से रकम निकाल कर तुम्हे प्रवेश दिला दिया ,तुम्हारी हर वर्ष की फीस और खर्च के लिए हर वर्ष ५ बीघा जमीं मुझे बेचते रहे , तुम्हारी यू पी एस सी के परीक्षा की तैयारी और फ़ीस-टूशन  के लिए उन्होंने मुझे बांकी बची ७ बीघा जमीन और यह कारभी बेचा दी , बेटा मै  और तुम्हारे पिताजी बचपन के साथी रहे है मैंने बहुत मना किया मगर वो माना नहीं ,बस यही कहा , मित्र होने का यदि अहसान करना चाहते हो तो इतना ही करना कि,  जब सोमेश आये  तो यह गाडी जमीन जायदाद हमारी ही लगनी चाहिए ,तेरी जोइनिंग की पार्टी में वो इस लिए नहीं आया ,कि बहुत बड़े बड़े लोग आएंगे न, तो कपडे है वैसे ,न  ही मै  कलेक्टर के बाप जैसा लगता हूँ ,बाद में हो आऊंगा कभी इसकी  माँ को लेकर घंटा दो घटे को | बेटा  तेरे पिता के हर बलिदान को मेरा लाख लाख सलाम है ६ माह पहले सुना था कि उसकी तबियत ज्यादा ख़राब है |  
सोमेश को पिता का तिलस्मी जीवन और स्वयं  का हर आवरण उसपर डालना और उसके अस्तित्व की रक्षा के लिए सब कुछ न्योछावर कर देना और अपना व्यवहार उनका  अंतिम स्वांस तक निः शब्द भाव से सबकुछ बलिदान कर देना गहरे आघात में बदल गया था , एक बड़ा वज्रा घात हुआ था सोमेश पर ,काँपते हाथों से उसने फ़ोन का रिसीवर उठाया नंबर डायल किया, और जोर जोर से चिल्ला चिल्ला कर रोने लगा सारा बांध टूट चूका था, पिता लगभग रोते रोते हुए चिल्ला रहे थे ,क्या है बेटा मुझे बता ,शर्मा जी ने हाथ से रिसीवर लेकर कहा  सर्वेश्वर तुम्हारा पुत्र आज तुम्हारी कुर्बानी जान गया है ,उसे पश्चाताप का मौका जरूर दो ,उसे यह पद प्रतिष्ठा ,झूठी दुनियां के व्यवहार नहीं बल्कि तुम्हारा प्यार चाहिए ,हम आरहे है--------- सोमेश को सहलाते हुए शर्माजी  बोले  बेटा कर्त्तव्य ,उत्कर्ष और उम्र की आपूर्तियों के साथ तुम प्रेम के वृहत साम्राज्य को भूल गए थे ,पुत्र  जीवन  उनका अपमान कभी नहीं भूलता जो ,आपके परवरिश के आधार रहे हों और आज यदि तुम्हारा पश्चाताप जागा है  तो तुम अपना लक्ष्य  जरूर प्राप्त कर लोगे यह मेरा  विश्वास है | 


समय ----- जीवन में व्यतीत होते हुए तमाम क्षण अपना परिणाम  जानना चाहते है ,कि उनका प्रयोग सकारात्मक हुआ या नकारात्मक,  परन्तु अधिकांशतः हमारे पास इस प्रश्न का कोई उत्तर होता भी  नहीं है | समय की बहुमूल्यता का आंकलन हम कभी कर ही नहीं पाए , अपनी  उपलब्धियों और लालच के तूफ़ान में हम केवल अपनी झूठी उपलब्धियों का गुण  गान करते रहे ,जबकि जाते हुए समय की परीक्षा सूची  में हमें शून्य है प्राप्त हो पाया और कालांतर में समय ने यह सिद्ध भी करदिया कि उसका उतना बहुमूल्य काल निरर्थक हो गया है ,जैसे धातु की किसी बड़ी कलाकृति  बनाता कलाकार अंतिम क्षणों ंमें नैराश्य में डूब गया क्योकि अचानक जिस चित्र को उसने सुबह नाम देना चाहता  था वो रात्रि के अंधकार जैसा दिखाई जैसी अनुभूति पैदा कररही थी , जिसे अब सवांरने ठीक होने का मौका  भी नहीं रहा | 

बचपन में हर चीज की मांग और हर चीज उपलब्ध थी, हम ,शहंशाह होते थे  पिता के साथ ,माँ के साथ होने पर एसपीजी ,रॉ और बड़ी सुरक्षा एजेंसी भी दुनियां की सारी सुरक्षाएं  फीकी थी ,आँचल के पल्लू को मुंह पर डाल कर वो अनुभूति कि अब दुनिया में  कोई  कुछ  नहीं बिगाड़ सकता था हमारा, यह जानते थे हम ,धीरे धीरे स्कूल के दोस्त उनका झूठ सच सीखा गया, फिर कॉलेज ने प्रेक्टिकल बनाते बनाते हमें, तमाम अराजक नुख्से सिखाये झूठ फरेब कैसे भी काम निकालने की कला सब सीखा डाला ,हमें स्वयं को अपनों से बहुत दूर कर दिया और अंत में  नए नए रिश्तों और उनके नए वातावरण ने निहायत स्वार्थी मक्कार और धूर्त बनाने में अपनी अहम् भूमिका अदा की ,और सबसे मजे की बात यह की हम हर रोज स्वयं को सराहते रहे कि हमसे अधिक आदर्श -भाग्यवान और श्रेष्ठ कोई है | 

प्रेम 
मनुष्य क्या  दुनियां के  हर जीव स्वभाव गत रूप में सदैव प्रेम की खोज में  लगा रहा है, वह जीवन के आरम्भ से अंत तक इसी  खोज में रहता है कि उसे अनवरत, एक सच्चा प्रेम ,अवश्य प्राप्त होता रहे, मगर  विडम्बना यही है कि वो जिस परिष्कृत प्रेम की आकांक्षा करता है, बस उसे वो ही नहीं मिल पाता, उसका स्वभाव ऐसा है कि वह  प्रेम को न तो बाँटना चाहता है और नहीं यह चाहता है कि उसे जीवन के किसी भी  भाग से कम प्रेम प्राप्त हो ,इसमें सबसे बड़ी   समस्या यह है कि वह जो  चाहता है और जो स्वयं की  कार्य प्रणाली अपनाता है वह दोनो ही विपरीत  परिणाम  देती है   ,यहाँ सबसे महत्वपूर्ण यह है कि वह सबकुछ हासिल कर लेता है ,मगर वह नहीं  जिसकी खोज  में वह निकला था, परिणाम सारे जीवन का अथक प्रयत्न व्यर्थ हो जाता है ,फिर कर्म-प्रेम -उम्र  सामंजस्य मुँह चिढ़ाता लगता है | 

जीवन का सार भूत सिद्धांत यह था कि सम्पूर्ण जीवन एक आदर्श भावना से जीकर उस तथ्य की खोज अवश्य करें जिसके लिए  आत्मा हमे  उसे प्रोत्साहित कर सके ,ध्यान रहे   सांसारिक एवं भौतिक वादी उपलब्धि  कितनी भी बड़ी क्यों न हों ,आत्मा के प्रोत्साहन का विषय नहीं बन पाती, जबकि निस्वार्थ कर्म की परिभाषा के परिणाम से जो सत पैदा होता है ,वह आत्मा और मनुष्य को दीर्घ कालिक संतोष अवश्य दे सकता है | जब भी कर्त्तव्य की बात आयी तब, यह अधिक महत्व पूर्ण माना गया कि , यदि कर्त्तव्य ने उम्र -प्रेम और जीवन की वास्तविकता को समझते हुए व्यवहार किया, तो उसकी उपलब्धि में  आपको आनंद का वह स्तर अवश्य प्राप्त कराएगी जो  संसार में विरलों को ही प्राप्त हो पाता  है | हम क्या चाहते है और  उसके लिए हमारे कर्त्तव्य बोध की दिशा क्या है , सारी सफलता इसपर ही निर्भर है  
संसार की भौतिक पूर्तियाँ संपत्ति वैभव धन और साम्राज्य  बांटने के साथ अपना अस्तित्व खोने की संभावनाओं तक पहुंच जाते है ,मगर सर्वप्राणी से प्रेम काभाव जितना अधिक बांटेंगे ,ध्यान रहे वो हजारों गुना बढ़ कर आप तक लौट आएगा ,ध्यान यह भी रखिये कि हम  प्रेम की कल्पना स्वयं की लिए किये हुए है हमें वैसा ही प्रेम बांटना चाहिए ,यदि कर्त्तव्य बोध के  क्रियान्वयन में इस संकल्प को प्राथमिकता मिल गई, तो आप निश्चित जानिए कि आपको वो स्थान  सहज प्राप्त हो जाएगा जिसे लोग मोक्ष ,आनंद चरम  संतोष या परम गति के नाम से जानते है जो  सम्राटों को भी नहीं मिल सकीहै |

कर्त्तव्य के साथ प्रेम और उम्र के  सामंजस्य में भी प्रयोग करें 

  •    जीवन की प्राथमिकताएं ,आवश्यकताएं  और लक्ष्य पहले से निर्धारित करें उन्हें दोहराते रहें 
  • उम्र के साथ साथ अपने नियत सिद्धांत अवश्य बनाइये क्योकि जीवन सैदेव शोर्टकट की चाह करता रहता है जबकि इससे सम्पूर्ण  नाश होजाता है 
  • जीवन में आयु केसाथ अपने आधारभूत संबंधों को हल्का नहीं पड़ने दें नए सम्बंधोंके कारण यदि इन संबंधों पर असर हुआ तो स्वयं की शांति नष्ट हो जायेगी | 
  • जीवन के प्रतिपल अपने लिए नई  आदर्श पृष्ठ भूमि की मांग करता रहता है और   मन शार्ट कट और वासनाओं की आपूर्ति की परिणाम सारे सिद्धांत टूटने लगते है अपनी नियत शैली और सिद्धांतों को  अपनाइये |
  •  उम्र के साथ अनुशासन ,कठोर नियंत्रण और सही गलत की जानकारी पर विचार अवश्य करें, क्योकि कुछ पल का सुख लम्बे समय का पश्चाताप बन जाता है | 
  •  जैसा प्रेम आपकी आत्मा चाहती है और हर पल उससे अविभूत रहना चाहती है, क्या आप उस प्रेम को बाँट रहे है यदि नहीं तो आज से ही अपने कर्त्तव्य में इसे अवश्य जोडलें| 
  • कर्त्तव्य बोध का आधार इतना संयमित हो कि हम अपने स्वप्नों से पूर्व उसे क्रियान्वित करना सीखें , हम मन की क्षमता को आत्मा की सच्ची साधना के अनुसार क्रियान्वित करें| 
  • प्रेम का मतलब बहु आयामी है अर्थात अपने आपसे प्रेम कर्त्तव्य से प्रेम हर इंसान और जीव से प्रेम और सशक्त भावनाओं के साथ सम्पूर्ण प्रकृति से प्रेम, इससे ही सकारात्मक जीवन की शुरुआत होगी | 
  • उम्र -प्रेम और कर्त्तव्य के बोध के लिए सतत चिंतन की आवश्यकता है यही सोच समय समय पर आपको आपकी रण नीति बदलने को कहेगी ध्यान यह रहे ,कि  इन सबमे आपके जीवनके मूल सिद्धांत बने रहें |


 




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