Thursday, June 21, 2018

उम्र -प्रेम और कर्त्तव्य का समन्वय (coordination of age-love and duty)

उम्र -प्रेम और कर्त्तव्य का समन्वय (coordination of age-love and duty)


सोमेश ने आज ही  सौराष्ट्र के एक नगर में जिलाधीश का पद ग्रहण किया था, पत्नी और उनके तमाम घरवाले नए कलेक्टर साहब के पद ग्रहण की ख़ुशी में मग्न थे ,बड़े बड़े अफसर अपनी आमद दर्ज करा रहे थे, पिताजी का कल ही पत्र आगया था बेटा,  बुवाई चलरही है ,बादमे तेरी माँ और मै आ जाऊँगा ,कुछ ज्यादा आग्रह भी नहीं किया था सोमेश ने , पत्नि ठीक ही कहती है कि दुनियां का हर बाप अपनी संतान के लिए वो सब करता है ,जो उसके पिता ने किया है, आई आई  टी की डिग्री पूरी करने में भी वो २-३ बार ही गया था घर, अब मन नहीं लगता  गांव में, एक दो दिन अपनी पुरानी   सफ़ेद अम्बेस्डर गाड़ी चलाई और फिर जा पहुंचा कॉलेज ,पैसे की जब जैसी जरूरत पडी वो बिना मांगे आजाता था ,और सयोग की बात यह की उसकी शादी भी कॉलेज  के पास के नगर में  ही हो गई थी , वहां आना जाना ज्यादा होता था और जीवन की नई  करवट थी, कि वह आज कलेक्टर के पद पर  बहुत गौरवान्वित था | माँ -पिताजी आये और चलेगये सब ठीक ही  तो था, न कोई शिकायत थी ,न कोई उम्मीद, बस एक मूक प्रश्न था, कि क्या बेटा हमें  कभी मन से याद  किया तूने  या नहीं ,जाते में  आंसुओं से  मूक आवाज  बहुधा दब जाती  थी


 एक रोज अचानक पिताजी के मित्र शर्मा अंकल दिखे वोभी पिताजी वाली अम्बेसेडर गाड़ी में बड़े आश्चर्य के साथ सोमेश ने उन्हें बुलाया पांव छुए, ऑफिस ले गया और आश्चर्य भाव से पूछा ये गाड़ी अंकल आपके पास ,पापा कैसे है सब ठीक है न , शर्मा अंकल ने आश्चर्य से पूछा बेटा चार पांच वर्षों से तुम गाँव नहीं गए क्या ,हाँ है बड़ी व्यस्तता  नहीं जा पाया ,कोई प्रॉब्लम है क्या, नहीं बेटे ,अब सुनो वह कहानी जो आपको कभी पापा ने नहीं बताई ,बेटा तुम्हारी एडमिशन के समय पापा ने अपनी सारी  प्रोविडेंट फण्ड से रकम निकाल कर तुम्हे प्रवेश दिला दिया ,तुम्हारी हर वर्ष की फीस और खर्च के लिए हर वर्ष ५ बीघा जमीं मुझे बेचते रहे , तुम्हारी यू पी एस सी के परीक्षा की तैयारी और फ़ीस-टूशन  के लिए उन्होंने मुझे बांकी बची ७ बीघा जमीन और यह कारभी बेचा दी , बेटा मै  और तुम्हारे पिताजी बचपन के साथी रहे है मैंने बहुत मना किया मगर वो माना नहीं ,बस यही कहा , मित्र होने का यदि अहसान करना चाहते हो तो इतना ही करना कि,  जब सोमेश आये  तो यह गाडी जमीन जायदाद हमारी ही लगनी चाहिए ,तेरी जोइनिंग की पार्टी में वो इस लिए नहीं आया ,कि बहुत बड़े बड़े लोग आएंगे न, तो कपडे है वैसे ,न  ही मै  कलेक्टर के बाप जैसा लगता हूँ ,बाद में हो आऊंगा कभी इसकी  माँ को लेकर घंटा दो घटे को | बेटा  तेरे पिता के हर बलिदान को मेरा लाख लाख सलाम है ६ माह पहले सुना था कि उसकी तबियत ज्यादा ख़राब है |  
सोमेश को पिता का तिलस्मी जीवन और स्वयं  का हर आवरण उसपर डालना और उसके अस्तित्व की रक्षा के लिए सब कुछ न्योछावर कर देना और अपना व्यवहार उनका  अंतिम स्वांस तक निः शब्द भाव से सबकुछ बलिदान कर देना गहरे आघात में बदल गया था , एक बड़ा वज्रा घात हुआ था सोमेश पर ,काँपते हाथों से उसने फ़ोन का रिसीवर उठाया नंबर डायल किया, और जोर जोर से चिल्ला चिल्ला कर रोने लगा सारा बांध टूट चूका था, पिता लगभग रोते रोते हुए चिल्ला रहे थे ,क्या है बेटा मुझे बता ,शर्मा जी ने हाथ से रिसीवर लेकर कहा  सर्वेश्वर तुम्हारा पुत्र आज तुम्हारी कुर्बानी जान गया है ,उसे पश्चाताप का मौका जरूर दो ,उसे यह पद प्रतिष्ठा ,झूठी दुनियां के व्यवहार नहीं बल्कि तुम्हारा प्यार चाहिए ,हम आरहे है--------- सोमेश को सहलाते हुए शर्माजी  बोले  बेटा कर्त्तव्य ,उत्कर्ष और उम्र की आपूर्तियों के साथ तुम प्रेम के वृहत साम्राज्य को भूल गए थे ,पुत्र  जीवन  उनका अपमान कभी नहीं भूलता जो ,आपके परवरिश के आधार रहे हों और आज यदि तुम्हारा पश्चाताप जागा है  तो तुम अपना लक्ष्य  जरूर प्राप्त कर लोगे यह मेरा  विश्वास है | 


समय ----- जीवन में व्यतीत होते हुए तमाम क्षण अपना परिणाम  जानना चाहते है ,कि उनका प्रयोग सकारात्मक हुआ या नकारात्मक,  परन्तु अधिकांशतः हमारे पास इस प्रश्न का कोई उत्तर होता भी  नहीं है | समय की बहुमूल्यता का आंकलन हम कभी कर ही नहीं पाए , अपनी  उपलब्धियों और लालच के तूफ़ान में हम केवल अपनी झूठी उपलब्धियों का गुण  गान करते रहे ,जबकि जाते हुए समय की परीक्षा सूची  में हमें शून्य है प्राप्त हो पाया और कालांतर में समय ने यह सिद्ध भी करदिया कि उसका उतना बहुमूल्य काल निरर्थक हो गया है ,जैसे धातु की किसी बड़ी कलाकृति  बनाता कलाकार अंतिम क्षणों ंमें नैराश्य में डूब गया क्योकि अचानक जिस चित्र को उसने सुबह नाम देना चाहता  था वो रात्रि के अंधकार जैसा दिखाई जैसी अनुभूति पैदा कररही थी , जिसे अब सवांरने ठीक होने का मौका  भी नहीं रहा | 

बचपन में हर चीज की मांग और हर चीज उपलब्ध थी, हम ,शहंशाह होते थे  पिता के साथ ,माँ के साथ होने पर एसपीजी ,रॉ और बड़ी सुरक्षा एजेंसी भी दुनियां की सारी सुरक्षाएं  फीकी थी ,आँचल के पल्लू को मुंह पर डाल कर वो अनुभूति कि अब दुनिया में  कोई  कुछ  नहीं बिगाड़ सकता था हमारा, यह जानते थे हम ,धीरे धीरे स्कूल के दोस्त उनका झूठ सच सीखा गया, फिर कॉलेज ने प्रेक्टिकल बनाते बनाते हमें, तमाम अराजक नुख्से सिखाये झूठ फरेब कैसे भी काम निकालने की कला सब सीखा डाला ,हमें स्वयं को अपनों से बहुत दूर कर दिया और अंत में  नए नए रिश्तों और उनके नए वातावरण ने निहायत स्वार्थी मक्कार और धूर्त बनाने में अपनी अहम् भूमिका अदा की ,और सबसे मजे की बात यह की हम हर रोज स्वयं को सराहते रहे कि हमसे अधिक आदर्श -भाग्यवान और श्रेष्ठ कोई है | 

प्रेम 
मनुष्य क्या  दुनियां के  हर जीव स्वभाव गत रूप में सदैव प्रेम की खोज में  लगा रहा है, वह जीवन के आरम्भ से अंत तक इसी  खोज में रहता है कि उसे अनवरत, एक सच्चा प्रेम ,अवश्य प्राप्त होता रहे, मगर  विडम्बना यही है कि वो जिस परिष्कृत प्रेम की आकांक्षा करता है, बस उसे वो ही नहीं मिल पाता, उसका स्वभाव ऐसा है कि वह  प्रेम को न तो बाँटना चाहता है और नहीं यह चाहता है कि उसे जीवन के किसी भी  भाग से कम प्रेम प्राप्त हो ,इसमें सबसे बड़ी   समस्या यह है कि वह जो  चाहता है और जो स्वयं की  कार्य प्रणाली अपनाता है वह दोनो ही विपरीत  परिणाम  देती है   ,यहाँ सबसे महत्वपूर्ण यह है कि वह सबकुछ हासिल कर लेता है ,मगर वह नहीं  जिसकी खोज  में वह निकला था, परिणाम सारे जीवन का अथक प्रयत्न व्यर्थ हो जाता है ,फिर कर्म-प्रेम -उम्र  सामंजस्य मुँह चिढ़ाता लगता है | 

जीवन का सार भूत सिद्धांत यह था कि सम्पूर्ण जीवन एक आदर्श भावना से जीकर उस तथ्य की खोज अवश्य करें जिसके लिए  आत्मा हमे  उसे प्रोत्साहित कर सके ,ध्यान रहे   सांसारिक एवं भौतिक वादी उपलब्धि  कितनी भी बड़ी क्यों न हों ,आत्मा के प्रोत्साहन का विषय नहीं बन पाती, जबकि निस्वार्थ कर्म की परिभाषा के परिणाम से जो सत पैदा होता है ,वह आत्मा और मनुष्य को दीर्घ कालिक संतोष अवश्य दे सकता है | जब भी कर्त्तव्य की बात आयी तब, यह अधिक महत्व पूर्ण माना गया कि , यदि कर्त्तव्य ने उम्र -प्रेम और जीवन की वास्तविकता को समझते हुए व्यवहार किया, तो उसकी उपलब्धि में  आपको आनंद का वह स्तर अवश्य प्राप्त कराएगी जो  संसार में विरलों को ही प्राप्त हो पाता  है | हम क्या चाहते है और  उसके लिए हमारे कर्त्तव्य बोध की दिशा क्या है , सारी सफलता इसपर ही निर्भर है  
संसार की भौतिक पूर्तियाँ संपत्ति वैभव धन और साम्राज्य  बांटने के साथ अपना अस्तित्व खोने की संभावनाओं तक पहुंच जाते है ,मगर सर्वप्राणी से प्रेम काभाव जितना अधिक बांटेंगे ,ध्यान रहे वो हजारों गुना बढ़ कर आप तक लौट आएगा ,ध्यान यह भी रखिये कि हम  प्रेम की कल्पना स्वयं की लिए किये हुए है हमें वैसा ही प्रेम बांटना चाहिए ,यदि कर्त्तव्य बोध के  क्रियान्वयन में इस संकल्प को प्राथमिकता मिल गई, तो आप निश्चित जानिए कि आपको वो स्थान  सहज प्राप्त हो जाएगा जिसे लोग मोक्ष ,आनंद चरम  संतोष या परम गति के नाम से जानते है जो  सम्राटों को भी नहीं मिल सकीहै |

कर्त्तव्य के साथ प्रेम और उम्र के  सामंजस्य में भी प्रयोग करें 

  •    जीवन की प्राथमिकताएं ,आवश्यकताएं  और लक्ष्य पहले से निर्धारित करें उन्हें दोहराते रहें 
  • उम्र के साथ साथ अपने नियत सिद्धांत अवश्य बनाइये क्योकि जीवन सैदेव शोर्टकट की चाह करता रहता है जबकि इससे सम्पूर्ण  नाश होजाता है 
  • जीवन में आयु केसाथ अपने आधारभूत संबंधों को हल्का नहीं पड़ने दें नए सम्बंधोंके कारण यदि इन संबंधों पर असर हुआ तो स्वयं की शांति नष्ट हो जायेगी | 
  • जीवन के प्रतिपल अपने लिए नई  आदर्श पृष्ठ भूमि की मांग करता रहता है और   मन शार्ट कट और वासनाओं की आपूर्ति की परिणाम सारे सिद्धांत टूटने लगते है अपनी नियत शैली और सिद्धांतों को  अपनाइये |
  •  उम्र के साथ अनुशासन ,कठोर नियंत्रण और सही गलत की जानकारी पर विचार अवश्य करें, क्योकि कुछ पल का सुख लम्बे समय का पश्चाताप बन जाता है | 
  •  जैसा प्रेम आपकी आत्मा चाहती है और हर पल उससे अविभूत रहना चाहती है, क्या आप उस प्रेम को बाँट रहे है यदि नहीं तो आज से ही अपने कर्त्तव्य में इसे अवश्य जोडलें| 
  • कर्त्तव्य बोध का आधार इतना संयमित हो कि हम अपने स्वप्नों से पूर्व उसे क्रियान्वित करना सीखें , हम मन की क्षमता को आत्मा की सच्ची साधना के अनुसार क्रियान्वित करें| 
  • प्रेम का मतलब बहु आयामी है अर्थात अपने आपसे प्रेम कर्त्तव्य से प्रेम हर इंसान और जीव से प्रेम और सशक्त भावनाओं के साथ सम्पूर्ण प्रकृति से प्रेम, इससे ही सकारात्मक जीवन की शुरुआत होगी | 
  • उम्र -प्रेम और कर्त्तव्य के बोध के लिए सतत चिंतन की आवश्यकता है यही सोच समय समय पर आपको आपकी रण नीति बदलने को कहेगी ध्यान यह रहे ,कि  इन सबमे आपके जीवनके मूल सिद्धांत बने रहें |


 




Saturday, June 16, 2018

स्वयं की खोज और जीवन(Self realization and life)

स्वयं की खोज और जीवन(Self realization and life) 

मलया गिरि  का राजा पुष्प सेन हजारों यद्धों का अजेय सम्राट सिद्ध हुआ ,परन्तु था बहुत घमंडी ,किसी के अस्तित्व को न मानने वाला ,राजा अपनी चहेती रानी को लकवा मार जाने के कारण बहुत दुखी था, सारे इलाज बे असर हो गए ,थे राजा को लगा वो इतना महान और ताकतवर होकर भी निरीह सा है ,राज गुरु कल ही कह रहे थे पानी जैसी है जिंदगी कभी भी जीवन मृत्यु हमें प्रभावित कर सकती है ,राजा बेचैनी और सोच में पड़  गया मेरे बाद मेरे परिवार  संपत्ति का क्या होगा , एक बार अपने गुप्तचरों  और सैनिको के साथ आखेट पर गया ,रास्ते में घोर जंगल में उन्हें दिशाभ्रम हो गया, तीन दिन चलते हुए होगये ,सारा पानी खाना ख़त्म हो गया और एक भयानक तूफ़ान में भटकते  भटकते बेहोश  हो गए , बेहोशी के अंतिम छणों में राजा को कभी लगा की वो समुद्र की गहराइयों में ,उससे सैकड़ों गुना बड़े जीवो से स्वयं को बचने का प्रयत्न कररहा है ,कभी उसने देखा कि हजारों चीटियां गर्व से आपने गंतव्य को चली जारही है ,उसने पहाड़ों का गिरना ,ग्लेशियर के टूटने की भयावह आवाजें और समुद्री तूफ़ान के बड़े तांडव ,जंगल में लगी आग के स्वप्नों में स्वयं को जीवन रक्षा करते देखा, एक निरीह, बेचारे की भाँति ,जब उसको होश आया तो एक सन्यासी सामने था ,कुछ फल शीतल जल दियासन्यासी ने उसे,सन्यासी ने कहा पुत्र तुम और तुम्हारे साथी बेहोश पड़े थे इस लिए आपको यहाँ लाया हूँ |
राजा  घबराहट  में बोला  मुझे बचाइए मैंने भयानक स्वप्न देखे है, मुझे जीवन का भय लग रहा है,सन्यासी ने कहा राजा मैं  सब जानता हूँ ,तू अपने भय से मुक्त हो जा ,तूने स्वप्न में जो जल पहाड़ जंगल अग्नि और तूफानी हवाये देखी  है ,वे  इस प्रकृति के पांच तत्त्व एवं  धरती के शक्तिशाली अवयव है ,ये पांच तत्त्व ही महँ शक्तिशाली है ,पुत्र ये सब तेरे अहम् और युद्धों के स्वभाव का जबाब था कि तू वास्तव में अपने को पहचानें , हर जगह तेरा अहम् तुझे व्याकुल करता रहा है ,पुत्र मन से अहम् निकल जाए तो उस चीटीं की तरह हम भी गर्व से चल सकते है,राजा निरुत्तर और शर्मिंदा था ,सन्यासी ने कहा पुत्र सुबह मैंने हजारों फलों में से  ४ फल लिए तीन तुम लोगो को दिए ,एक मैंने खाया कल ईश्वर फिर देगा ,राजा समझ गया की साधु यही कह रहा है, हे राजन मैं  तो शाम तक की चिंता नहीं करता तू, क्यों परेशां है ,पीढ़ियों के इंतजाम में | अचानक राजा की सेनाये वहां आ गई अपने गले का रुद्राक्ष देते हुए साधु ने कहा , जा अपनी रानी को पहना देना वो ठीक हो जायेगी, यह कहकर साधु हिमालय की हिमाच्छादित घाटियों पर चल दिया राजा निरुत्तर भरी आँखों से उसे चरण वंदन करता रहा | 

 सुख- दुःख जय -पराजय लाभ- हानि सब ही तो तुलनात्मक है ,जब तक आपको  किसी नकारात्मकता का अनुभव नहीं है तो आपको सकारात्मकता भी व्यर्थ लगने लगती है ,एक गुरु से शिष्य ने कहा  गुरु देव जीवन में आराम ही नहीं है सब ख़त्म होगया है , गुरु कुछ नहीं बोले अचानक वही शिष्य रोता  हुआ आया मै  जल गया हूँ  गुरु ने तुरंत मलहम लगाया पुचकारा हाथ फेरा और पूछा अब अच्छा लग रहा है वो बोला अब आराम है मलहम चमत्कारी है आनंद आगया मै  तो मर ही गया था ,अचानक गुरु की और देख कर खुद शर्मा गया शिष्य ,गुरु ने कहा पुत्र ईश्वर जो दे रहा है , जो कररहा है , जैसे रख रहा है  हम सब उसे सहर्ष स्वीकारें तो जीवन आनंद है, पुत्र  मुर्ख बनाकर  स्वार्थ सिद्ध करने वाले केवल धोखा स्वयं धोखा। यातनाएं  और  ही पाते है वे खुद से ही शिकायते करने लगे तो यही अविश्वास स्वयं को न जानने की भूल के कारण दुःख पराजय हानि जैसा होकर हमें नकारात्मक बना देता है | 

 आपका जन्म का कारण क्या है क्या आप जीवन में किसी उद्देश्य को लेकर आये  है और क्या आप उसके लिए कुछ सकारात्मक पहल कर पाए है ,जीवन को उसके उद्देश्य से परिचित करना बड़ा कठिन और जटिल कार्य है ,कुछ लोग जो अपना उद्देश्य तय भी कर पाए है उनके सामने उसको क्रियान्वित करने  चिनौती और अधिक बड़ी समस्या के रूप में खड़ी हो जाती है ,क्योकि उसके क्रियान्वयन की समस्याएँ जीवन के सामान्य कार्यों और उपलब्धियों से अधिक कठिन होती है ,उसके संकल्प इतने अधिक दृण होते है जिनके साथ और कुछ चल ही नहीं सकता  , परन्तु हिन्दू दर्शन कहता है यदि आप अनासक्त भाव से, जीवन के संकल्पों को क्रियान्वित कर पाए तो जीवन आपको  एक दिन अवश्य अपने लक्ष्य के उच्चतम शिखर पर अवश्य ले जाएगा | 

सन्यासी ,योगी ,जितेन्द्रिय ,महात्माओं और उच्च धार्मिक विचारकों और एक सामान्य आदमी,धन ,व्यक्ति संपत्ति ,तथा भौतिकता के पीछे भागते लोगो में ,फर्क केवल एक तथ्य का है ,वह है आत्म बोध , जो जिज्ञासु की भाँती जीवन   पूर्ण करने में लगा है, वह प्रथम श्रेणी का है और जो सुख धन वैभव और भौतिक लिप्साओं के जाल में लिपटा भागा चला जारहा है वह दूसरी श्रेणी में आता है ,मित्रों इसके जीवन की नियति ही एक भोग्य है और बीच बीच में थोड़े सुस्ताने को यह सुख मानता है यही इसका सबसे बड़ा भ्रम है ,स्वयं अपने आपको धोखे में रख कर अपनी अकर्मण्यता को दूसरों पर थोपते रहना कोई हल नहीं हुआ न , वहां हर असफलता का जिम्मेदार भी यह स्वयं ही होता है | 


 
 अपने आचरण में सबको धोखा देते देते हमारा मन स्वयं को भी नहीं छोड़ता वह हमें ही धोखा देने लगता है परिणामतः हम स्वयं की शांति खोकर एक मनोरोग के रोगी होते जारहे है ,शांति, सौहार्द,दया , सकारात्मकता ,सत्य ,परमार्थ और सहष्णुता सब ख़त्म होकर हम एक बहरे व्यक्ति की भांति अपना प्रलाप जारी रखते है , यही सामान्य जीवन के वो पहलू है जो आदमी को चारो तरफ से जकड़ कर नाकारा अशांत और यातनाओं में सिद्ध किये हुए है|  बाह्य संसाधनों। अपनी शारीरिक  मानसिक जटिलताओं के कारण हमारा स्वाभाव केवल स्वयं के स्वार्थ सिद्ध करने का रह गया है. स्वयं को बड़ा बताने की चेष्टा और अपने  आपको आदर्श बताते हुए हम सारी  ऋणात्मकताओं को दूसरे पर थोपने के आदि हो रहे है , क्रोध , द्वेष , वैमनस्यता एवं अपनी मनमानी करके हम स्वयं को श्रेष्ठ समझ रहे  है ,परिणाम हम अपने खोदे हुए गड्ढे में फिसलते जा रहे है


स्वयं का साक्षात्कार बड़ा  अनोखा है ग्यानी आत्म बोध ,आत्मानुभूति , और साक्षी भाव आदि  नामों से जानते है  जबतक स्वयं के भीतर गहरे में नहीं उतरोगे ,तबतक अपनी खोज नहीं कर पाओगे ,और न ही तुम स्वयं की नकारात्मकता और सकारात्मकता के पहलुओं को समझ पाओगे ,संसार को सही मायने में समझा हुआ  या हारा हुआ इंसान जब उसके आधारभूत स्वभाव को समझ गया ,तब उससे शिकायत ही नहीं रही सारा चिंतन स्वयं   के चारो तरफ घूमने लगा परिणाम यहीं से आरम्भ हो गया स्वयं की खोज का प्रथम अध्याय | 
 जब मन ने स्वयं का साक्षी भाव जागृत किया तब, हमारे व्यक्तित्व की कमियां ही कमियां हमारे सामने खड़ी हो गई, स्वयं को परिष्कृत करने हेतु अनेक संकल्प और क्रियान्वयन  के बाद, मन -बुद्धि को बाँध कर स्वयं की शक्ति को जागृत किया गया, तब कही जाकर धीरे धीरे सब सत्य सामने आने लगा ,संसार का हर सम्बन्ध भावों से परे भूख और फिर भूख की आपूर्ति समझ आया ,जबकि  सुख दूसरों पर या भौतिक संसाधनों में  न होकर मुझ में ही निहित था , परन्तु इस सुख का अनुभव भाषा और व्याख्या से परे ही रहेगा और इसके बाद किसी सुख की आवश्यकता ही नहीं होगी | 

निम्नांकित का प्रयोग करें और देखिये चमत्कार 

  • यहाँ सारे सम्बन्ध आवश्यक है मगर सबकी अपनी अपनी सीमाएं है , यहाँ कोई भी बहुत करीब और बहुत दूर नहीं है ,सबकी अपनी अपनी वासनाएं इच्छाएं है   जिनके अंत का  कोई  छोर नहीं है | 
  • जबतक आपके सुख की चाबी दूसरों  हाथ में होगी तबतक आपको सुख मिलाना ही नहीं है बस आपका उपयोग ही होना है ,कोई सहानुभूति के नाम पर ,कोई अधिकार दिखा कर ,या मज़बूरी बताकर ,इनसे दूर रहें 
  •  मानसिक  शारीरिक और सामाजिक   आपूर्तिओं का संघर्ष आपसे हर तरह की शांति छीन लेगा ,क्योकि आप इनसबके गुलाम बने बैठें है और इनको  नियंत्रण के बगैर नियंत्रित नहीं किया जा सकता | आवश्यकता है  की इनकी सीमाएं बनाइये | 
  • हर रोज अपनी अंतरात्मा की  मौन साधना अवश्य करें कि  आपके साथ क्या क्या अच्छा हुआ है, जीवन की सकारात्मकता और कैसे बढ़ने जा रही है | 
  •  प्रति दिन एकांत में बैठ कर स्वयं को पढ़ने का प्रयत्न करें और आज जो कमियां हुई है कल वो फिर न हों संकल्प लें | 
  • जीवन से किसी भी चीज के आदि होने का स्वभाव ख़त्म करें ,क्योकि यही से  कमियां आपको अपना गुलाम बना लेती है | 
  • ईश्वर पर  विश्वास रखे जिन स्थितियों पर आपका वश न हो,  उनका असमय शोक न मनाये ,क्योकि शोक उनका मनाये जहाँ कुछ किया जा सकता था पर नहीं किया गया | 
  • स्वयं को जितना सहज बना सकते है बनाइये, क्योकि जैसे ही आप व्यवहार में जटिलताएं लाएंगे आपका सम्पूर्ण अस्तित्व  और यातनाओं से भर जाएगा | 
  • सत्य ,सरलता और दूसरों के प्रति दया सहष्णुता का भाव रखिये इससे आपको संतुलित रहने की कला वैसे ही प्राप्त हो जायेगी || 
  • प्रत्येक व्यक्ति के प्रति नकारात्मक सोच को ख़त्म कर दें ,और भविष्य के प्रति संकल्प लें और स्वयं को किसी को भी बुरा भला कहने से बचाएं | 
  • आपका लक्ष्य केवल आपकी नकारात्मकता से प्रभावित होता है , मन के दृण निश्चय , संकल्प की साधना  में लगे कोई भी व्यक्ति को कोई व्यक्ति परिस्थित  बाधा पहुंचा ही नहीं सकती | 
  •     स्वयं की सक्षमता एवं अक्षमता के लिए कोई परिस्थिति कोई व्यक्ति जिम्मेदार हो ही नहीं सकता अतः स्वयं की क्रियान्वयता पर पुनर्विचार   कर आत्मा की गहराइयों से स्वयं को पहिचाने हर सफलता आपके क़दमों में ही होगी |  





Sunday, June 3, 2018

मन (विचार ),सफलता और शांति Mind (thought), success and peace

मन (विचार ),सफलता और शांति Mind (thought), success and peace

प्राचीर का राजा अनंत सेन बड़ा पराक्रमी था हर युद्ध में उसे मन चाही सफलता प्राप्त होती थी ,राजा जिस की भी चाह  करता  था ,वह उसके  होनी ही चाहिए थी ,, एक भयानक ताकत वर जिद्दी बच्चे जैसी सोच थी  उसकी ,उसकी इन आदतों से उसकी पत्नी ,राजा के धर्म गुरु एवं उसके पिता बहुत दुखी थे ,क्योकि कभी कभी वो ऐसी ऐसी जिदें करता था जिसमे परिवार और मानवता दोनो शर्मिंदा होजाती थी ,एक बार राजा शत्रु का  पीछा करते करते  घनघोर जंगल में जा पहुंचा ,रात  होने को थी,  प्यास और भूख से मन व्याकुल था ,अचानक उसे दूर पर एक दीपक जलता  हुआ दिखा और तत्काल वह वहां जा पहुंचा ,उसने बाहर से  देखा कि एक सौम्य और अति बल शाली सन्यासी ,ध्यान में बैठे है ,उनके पास दो शेर बैठे चौकसी कर रहे है, महात्मा के चेहरे पर अपूर्व शांति और तेज छाया था, राजा शेरो को देख कर भयाक्रांत होगया ,अचानक सर्वज्ञ सन्यासी ने शेरो से कहा जाओ ,शेर उठ कर पीछे के दरवाजे से चले गए, फिर उसने राजा को आवाज दी ,अन्नंत सेन आजाओ  ,राजा  विस्मित सा जाकर बैठ गया ,साधु में उसे पानी फल दिया उसे लगा ये फल उसने कभी खाये ही नहीं है ,अद्वतीय स्वाद पानी ऐसा जैसे अमृत का सरोवर मिल गया हो ,राजा ने सोचा इतना बल शाली साधु , इतना तेज ,इतना वैभव ,और इतनी शान्ति और प्रसन्नता ,के साथ कैसे रह सकता है यह सन्यासी, मै राजा हूँ परन्तु इसके सामने तुच्छ महसूस कर रहा हूँ स्वयं को ,जबकि मैं इससे हर हाल में कमजोर अशांत और वैभव हीन  हूँ मुझे भी यह सब चाहिए ,साधु  बड़ी देर तक राजा को देखता रहा अचानक कहने लगा राजन ये सब जो तुम चाहते हो वो सब तो तुम्हारे पास भी है, परन्तु तुम्हारे पास थोड़ा रुक कर उसे भोगने का समय ही नहीं है ,इस लिए तुम कभी आकलन नहीं कर पाए ,राजा काफी  शर्मिंदा हुआ उसके ज्ञान चक्षु अचानक खुल गए थे ,उसने कहा मुझे आप शरणागत मान कर इस अज्ञान से दूर कर सफलता और शांति का दान दें | साधु ने एक अपनत्व के भाव से उसे समझाना आरम्भ किया |

हे राजन शक्ति सम्पन्नता और शांति  समय और आकलन पर निर्भर है आपके राज प्रासाद बहुत बड़े है मगर क्या उनमे वो  सदभाव दिखाई पड़ा , तुम सम्राट हो मगर यदि आज ईश्वर तुम्हे पानी , भोजन नहीं देता तो तुम  भी मर जाते , कितने कमजोर निराश्रित थे तुम ,तुम मन और बुद्धि को एकत्रित करके सोच ही नहीं पाए पुत्र शत्रुता से राज्य जीते जाते  है मन हार जाता है और हारे हुए व्यक्ति में तो केवल पराजित होने का दुःख ही होगा न ,राजन दौड़ते दौड़ते थक जाओगे , कहाँ तक दौड़ना है उसकी अंतिम रेखा नहीं मिल पाएगी ,क्योकि तुम्हारे साथ समय भी दौड़ रहा है और अंतिम रूप से उसमे तुम्हे ही हारना है ,इसलिए भागो मत समय को स्तंभित रखने का प्रयत्न और त्याग यही से तुम्हें असली विजय प्राप्त होगी हे राजन मन की आपूर्ति और कामनाओं  और वासनाओं की  पूर्ती से हो ही नहीं सकती ,उसपर ध्यान न लगते हुए परहित के कार्य और जीवन समर्पण का उद्देश्य ही सर्वोपरि  है ,राजा ने   सर झुका दिया मानो उसे आज सही रास्ता मिलगया हो  |



मन की स्वच्छंदता कुछ समझती ही कहां है ,एक आपूर्ति होती नहीं दूसरी तमाम आपूर्तियाँ आपको खाली साबित कर देती है , तिनको का एक बड़ा पहाड़ एक चिड़िया को मिल गया ,जल्दी जल्दी तिनके इकठ्ठा करते और एकत्रित तिनकों की रक्षा में उसके प्राण चले गए  , उसे चिंता थी कहीं कोई और न ले जा पाए ये तिनके, उसने   जल्दी में दाना पानी तक नहीं लिया था उसने ,मरते मरते भी यही स्वप्न था कि उसने ढेरों तिनके इकट्ठे कर लिए है ऐसा ही परिवेश हम सबका हो गया है ,जिसमे हम मन को सर्वोपरि मान कर खुद स्वछंद हो बैठे है, परिणाम हमारी शांति सफलता भी भटक  गई है और जीवन का अमृत घट  हमारे मन की उद्विग्नता के कारण छलक कर ख़त्म होता जा रहा है शनैः शनैः मन का साम्राज्य हमारे दिलो दिमाग को अपंग  और नाकारा बनाता जा रहा है फिर हमे जीवन से शिकायत क्यों है |

मन की स्वच्छंदता कुछ समझती ही कहां है ,एक आपूर्ति होती नहीं दूसरी तमाम आपूर्तियाँ आपको खाली साबित कर देती है , तिनको का एक बड़ा पहाड़ एक चिड़िया को मिल गया ,जल्दी जल्दी तिनके इकठ्ठा करते और एकत्रित तिनकों की रक्षा में उसके प्राण चले गए  , उसे चिंता थी कहीं कोई और न ले जा पाए ये तिनके, उसने   जल्दी में दाना पानी तक नहीं लिया था उसने ,मरते मरते भी यही स्वप्न था कि उसने ढेरों तिनके इकट्ठे कर लिए है ऐसा ही परिवेश हम सबका हो गया है ,जिसमे हम मन को सर्वोपरि मान कर खुद स्वछंद हो बैठे है, परिणाम हमारी शांति सफलता भी भटक  गई है और जीवन का अमृत घट  हमारे मन की उद्विग्नता के कारण छलक कर ख़त्म होता जा रहा है शनैः शनैः मन का साम्राज्य हमारे दिलो दिमाग को अपंग  और नाकारा बनाता जा रहा है फिर हमे जीवन से शिकायत क्यों है |


सफलता का सीधा सम्बन्ध संकल्प से होता है और संकल्प की अस्थिरता का मुख्या कारक मन होता है मन का लक्ष्य हमेशा बदलता रहता है यदि उसपर बुद्धि अंकुश न लगा पाए तो , मन की गति हमेशा सुविधा ,मजा और स्वयं को बिना काम , मेहनत किये सफलता के उच्च शिखर पर देखना चाहती है ,इस पर सफलता के लिए तमाम सहानुभूति के संवाद ,नकारात्मक तर्क और स्वयं को कोसते रहने के शस्त्र है जिससे वो समाज के सामने बेचारा बन कर रहने की चेष्टा अवश्य करता है कारण केवल एक है कि उसकी मानसिक शक्तियों  ने    कम्फर्ट  जोन  ढूढना चालू कर दिया है और यही उसकी सफलता का बाधक तत्त्व भी है

सफलता का एक  बड़ा बाधक तत्त्व है दूसरों का चिंतन ,आलोचना।  और व्याख्या करना अनेक धर्म ग्रंथों ने इसे पाप की संघया दी है और इसके गंभीर परिणाम भी बताये है जिनका नकारात्मक असर आपके व्यक्तित्व पर पड़ना ही है
                               परम धरम श्रुति विदित अहिंसा --पर निंदा सम अघ न गिरीशा
                               को न  काहु  सुख दुःख कर दाता --निज कृत कर्म भोग सब भ्राता
                                                                                                                                 रामायण
हमारा ८०%चिंतन केवल दूसरों के विषय में ही चलता रहता है , शायद जीवन इसका ही नाम है ,कि हम शारीरिक मानसिक आपूर्ति करते रहे ,लोग हमें  हर हाल मे सम्मान देते रहें और हर वक्त हम अपने को ऊंचा बताने के लिए सबको छोटा सिद्ध करते रहें ,परिणाम हम स्वयं नकारत्मकताएँ बो रहे है ,जिनसे स्वयं का व्यक्तित्व कुंठित हो गया है ,द्वतीयतः हम सब अपने कर्मों के कारण ही सुख दुःख भोग रहे है ,अपने कर्तव्यों का उचित निर्वहन करके केवल अपने उत्थान का चिंतन करें जो सहायता करनी है अवश्य करें मगर अपने जीवन के मूल उद्देश्यं को छोड़कर आप न तो समाज को कुछ दे पाएंगे, न स्वयं का ही भला कर पाएंगे ,सफलता के लिए अपनी शारीरिक , मानसिक ,और उत्तेजनाओं ,क्रोध सबको नियंत्रित करना ही होगा |

शांति का सीधा सम्बन्ध चेतना शक्ति से है धर्म ग्रंथ उसे सोल , आत्मा , आत्म  ब्रह्म  आदि नामों  से जानते है यही जीवन का न्यायालय है जो प्रथमतः हमारे हर कार्य पर सटीक निर्णय देता है और उसका निर्णय ही हमे जीवन की उन्नति या अवनति के रूप में मिलता है , हम जो कर रहे है जो देख रहे है जो अनायास महसूस कररहे है उसका एक निर्णायक बनकर आत्मा जो निर्णय करती है निर्णय करती है  शायद  वही शांति दे पाती है , शांति का सीधा सम्बन्ध अपनी सम्पूर्ण चेतनाओं से पूर्णता का भाव है सामायिक रुप में जो संतोष दिखता है उसे तात्कालिक संतोष मजा सुख कह सकते है मगर जब जीवनमें आत्मा उसे चिरंतन बना दे सुख संतोष समर्पण और किसीचिज की जरूरत ही न रह जाए आप समझलो यही परम शांति है और यह सांसारिक जीवन में समाज और कर्म के साथ सहजता से प्राप्त की जा सकती है |     


   मन सफलता और शांति के लिए इन्हें प्रयोग करें सफलता अवश्य मिलेगी 

  • रोज के कार्यों में १० मिनट स्वयं को एकाग्रकरने का प्रयत्न करें उसके लिए स्वयं की आती जाती स्वासों को देखना सर्वश्रेष्ठ उपाय हो सकता है इससे मानसिक शक्ति में परिवर्तन होगा | 
  • चितन को ३ भागों में बांटे प्रथम वह जो आपके संकल्प और उद्देश्य हो द्व्तीय जिसके लिए आपकार्य योजना बनाये और उसे क्रियान्वित करें और तृतीय वो जो प्रकृति के आधीन है उनपर धनात्मक विश्वास | 
  •  व्यक्तित्व में घमंड न आने दे क्योकि आपके हर पतन का रास्ता यहीं से पैदा होगा चाहे वह शरीर ,समाज या सहायता का हो आपको उससे बचाना चाहिए | 
  • आपको किसी से भी तुलना नहीं करना है अच्छे और आदर्श लोगो से कुछ जरूर सीख सकते है मगर तुलना से आपका कद जरूर नीचे होगा ये हमेशा याद  रखें | 
  • दूसरों की आलोचना और चिंतन बिलकुल न करें क्योकि इससे आपका ब्रह्मांडीय ओरा स्वयं नकारात्मक वेव्स छोड़ने लगता है और वह व्यक्ति आपका आलोचक हो जाएगा ,जो आपके मार्ग की बड़ा बनेगा | 
  • हर इंसान अपने कर्म योग से बंधा है आपको अपने कर्म की सकारात्मकता को बनाये रखना चाहिए यदि उसमें कमी हुई तो व्यक्तित्व भी प्रभावित होगा अतः प्रति दिन अपने कामों की समीक्षा अवश्य करें | 
  • मन को अनुशाशन के अंकुश में अवश्य रखे यही से गांधी कीमहानता पैदा होती है और यही से व्यक्तित्व का गंदला परिवर्तन आदमी को गर्त में गिरा देता है ,उसकी स्वच्छंदता पर विचारोंका नियंत्रण लगाइये | 
  • स्वयं अपनी आत्मा से साक्षात्कार अवश्य करें जिसमें सिर्फ  अपने सकारात्मक चिंतन एवं  अपने दुष्कर्मों के लिए ईश्वर से क्षमा का भाव हो इससे आप थोड़े ही समय में एक अनोखी शक्ति से परिपूर्ण हो जाएंगे | 
  • संकल्प की स्थापना से ही आप स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध कर सकते है जब आप अपने संकल्प को बहुत बार दोहरा कर उसे पूर्ण करने के प्रयत्न करेंगे तब आप सफलता के लिए आश्वस्त हो सकते है | 
  • स्वयं को बेचारा कमजोर नाकारा न बनाये उस सैनिक  बारे में सोचे जो माइनस ५० डिग्री पर देश के लिए प्राण न्योछावर करने को संकल्पित है केवल  रास्ता है देश प्रेम  रक्षा और बलिदान आप कैसे युवा है अपने आपको ही कोसते कोसते कमजोर होते जारहे है एक बार उठो और संकल्प की प्रबलता में खुद को श्रेष्ठ सिद्ध करो |

 


अनंत कामनाएँ,जीवन और सिद्धि

  अनंत कामनाएँ,जीवन और सिद्धि  सत्यव्रत के राज्य की सर्वत्र शांति और सौहार्द और ख़ुशहाली थी बस एक ही  कमी थी कि संतान नहीं होना उसके लिए ब...