एक राजा ने अपने एक राज पुरोहित के न्याय और सत्य से प्रभावित होकर एक बड़ा राज्य दे दिया और यह भी कहा महाराज मैंने आपसे न्याय सिद्धांत और और राजनीति सब सीखा है मैं सत्य ,न्याय और मानवीयता की भलाई के लिए अपने प्राण भी न्योछावर कर सकता हूँ ,शायद ये सब मैंने बहुत कुछ आपसे ही सीखा है राजपुरोहित अभिमान में स्वयं को सराहते रहे और सम्पूर्ण राज्य सभा को इस दृष्टी से देखा कि जैसे न कोई सत्यवादी हुआ न होगा । नए राज्य की कल्पना कल्याण , सुविधाएं ,व्यापार और न्याय की दृष्टि से पुरोहित जी ने बड़े कठोर नियम बनाये जिसमे कही से भी गलत काम करने वाले का बचाव नहीं था , वैभव और विलासताओं ने पुरोहित जी में कई कमियां पैदा कर दी थी अय्याशी, दुष्कर्म ,शराब और नीच महिलाओं के साथ करने वाले पुरोहित हर अपराध के लिए रिश्वत लेने लगे ,एक दिन पुरोहित जी के ७ वर्ष के बच्चे ने पूछा पिताजी आपने बहुत कड़े क़ानून का दरवाजा बनाया है जिससे कोई दुष्ट बच नहीं सकता सब आपकी बढाई करते है , पुरोहित जी बहुत खुश हुए और अगले ही पल उन्हें अपने कर्मों की याद ने नीच सिद्ध कर दिया ,पुरोहित के मन में अपने दुष्कर्म के चित्र घूम गए उसे यह बड़ा भय लगा कि मै जिन दुष्कर्मों में हूँ उसके लिए मुझे भी फांसी हो जाएगी ,पुरोहित ने बड़े भारी सत्य और न्याय के कठोर द्वार में एक सूराख बनाया और चमकीला स्टीकर लगा दिया सोचा यह कि कभी मैं फंसा तो यहन से निकल जाऊँगा ,पुरोहित के सारे राज्य अधिकारियों ने भी अपने २ अनुसार न्याय में परिवर्तन कर डाला और अपने अपने अपराधों में बचने केलिए नियम बनाये और बड़े कानून के दरवाजे में सूराख करके स्टीकर लगा दिए गए सम्पूर्ण न्याय ,अन्याय ,अपराध और शोषण से भर गया मानवता त्राहि २ कर उठी ,पुराने सम्राट ने पुरोहित के राज्य की घोर आपराधिक प्रवृतियाँ , शोषण , और मानवता का अपमान और उदंड ,आततायी प्रवृति देख कर कई बार समझाया नहीं मानने पर एक बड़ी सेना भेज कर पुरोहित के राज्य पर कब्जा कर लिया और पुरोहित को फांसी दे दी गई ।
"कठोर न्याय का भय उसके निर्माणक को यह अवश्य बता देता है कि सत्य ,और न्याय उस कुँए के सदृश्य है जिसमे जैसा कर्म डालने का प्रयत्न करेंगे वैसा ही निरणय या प्रतिफल सामने आएगा , समय की स्थिति में जल्दी या देरी हो सकती है परन्तु हर परिणाम आपको ही भोगना है क्योकि न्याय के न आँखें होती है न भावनाए और नहीं रिश्तों को निभाने का मन वह तो केवल यह जानता है की मैं प्रकृति हूँ और मुझे तुम्हारे कर्मों के प्रतिफल में वही देना है जो तुमने मुझे दिया है यह मेरा दुर्भाग्य है कि मुझ पर प्रसंशा और माफी दोनो ही नहीं है "
हम सामान्य जीवन में जिस विधि से जीते है वहां हर पल हमे न्याय करना होता है या देखना है , मन , बुद्धि ,कर्म एवंम सोच में भी अन्याय को अनुभव करना , देखना , चिंतन करना और न्याय करना ये सब हमारे व्यक्तित्व के निर्माण के सशक्त भाग है ,जब भी हम जीवन के इन भागों की अनदेखी करेंगे तब तक हमारा व्यक्तित्व भी कमजोर असहाय और अशक्त ही माना जाएगा और जीवनमें कभी हुएं स्वयं से भी प्रसंशा नहीं मिल पाएगी ,रिश्तों , समाज , परिवार और राष्ट्र की सोच के लिए हमें सोचना ही होता है परन्तु यह ध्यान रहे कि हम किसी का ध्यान या ख़याल करके न्याय के बारे में नहीं सोच सकते
एक बड़े गुण्डे द्वारा किसी बेबस बच्ची को परेशान करने की घटना पर हम कह सकते है --- वो ऐसी ही है ,------वो हमें भी मारेंगे ------हमक्या करसकते है ------- उनपर हथियार है ------- या उसके विरोध , सहायता या आलोचना की जा सकती है । मित्रों आप ही निर्णय करो कि क्या मै अपनी बच्ची को न बचा पाया इसकी प्रसंशा करूँ या स्वयं बच गया खुश हो जाऊं ,या अपनी अकर्मण्यता को प्रसंशा दूँ , यह प्रश्न आपके साथ ही छोड़ देता हूँ |
समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ समय लिखेगा उसका भी अपराध
दिनकर
जीवन के सशक्त दर्शन का सिद्धांत इसी वाक्य आरम्भ हुआ है आप जीवन के चारों और जो सिद्दांत , नियम , और चिंतन की सीमाएं बना रहे है वो आपका सही निर्माण कर सकती है ,यदि आज आप अपने शरीर मन ,बुद्धि और ,परिवार समाज और राष्ट्र को न्याय देने का भाव नहीं रख पाये तो ध्यान रहे कि प्रकृति के न्याय के सामने हम भी
वैसे ही अपराधी होंगे जैसे अपराध करने वाले लोग हैऔर हमें हमारा अंतः कभी माफ़ नहीं करेगा ।
"एक चिड़िया का छोटा सा बच्चा मेरे ही सामने फुदक फुदक कर रोटी के टुकड़े से खेल रहा था और और मेरे देखते देखते पंखे की तरफ जाने लगा और कट कर मर गया "मन ने तुरंत कहा मुझको क्या , परन्तु अंतर मन ने कहा तू हत्यारा है , अपराधी है , अन्यायी है और तू अकेला इस अपराध के लिए दोषी है तुझमे मानवीयता तक नहीं है धिक्कार है तुझ पर तेरे न्याय पर और तेरी मानवीयता पर मित्रों कई दिन मन इतना व्यथित हुआ कि मेरे अंत मन ने ही मुझसे विद्रोह कर के मुझे अपनी ही नजर में गिरा दिया इस भाव की याद से ही मन और शरीर में खेद , लज्जा और दुःख की सिरहन उठती रही जीवन भर "
आधुनिक मनेजमेंट में सबसे ज्यादा महत्व पूर्ण विषय है कि आप स्वयं अपने बाह्य और आतंरिक न्याय विधि का पालन कीजिए अन्यथा आप उस सस्थान के लिए एक दायित्व बनकर रह जावेंगे ,बाह्य न्याय विधि का पालन करना तो आपके लिए आवश्यक सा है और वह आपको राष्ट्र सेवा का गर्व भी देता है मगर यदि एक बार आपने आतंरिक न्याय विधि का आदर्श निर्माण आरम्भ कर दिया तो ध्यान रखना की दुनिया की हरेक ऊंचाई आपके सामने कम हो जाएगी बस एक बार अपनी सम्पूर्ण शक्तियों को एकत्रित करकेउस ईश्वर के सामने यह संकल्प लेने की आवश्यकता है कि हे ईश्वर आप वह भाव दें जिससे मैं खुद को न्याय दे सकूँ और समाज में अपने मन वचन कर्म से न्याय की परिभाषा बन सकूँ |
न्याय के सिद्धांतो को इन कसौटियों पर एक बार फिर परखें
हम अपने आपसे न्याय करते रहें , इसे पहचानने का एक माध्यम यह है कि जिसे हमारा मन सही नहीं ठहराये उसे कैसे भी स्वीकार नहीं करें , मन स्वयं न्याय और अन्याय को भली प्रकार से जानता है |
स्वार्थों के परिवेश में दूसरे को अन्याय , दोष , और छोटा बताने की कोशिश न करें क्योकि बाद में यह आपके मन को बहुत ज्यादा कष्ट देने वाला है |
वर्तमान की उपलब्धियों के लिए शार्ट कट लगा कर दूसरों का बिना ख़याल किये बढ़ने वाले अकेले रह जाते है और जो लोग टीम भावना के साथ स्थिर होकर समूह में चलते है वे पूर्ण सफलता हासिल कर पाते है |
न्याय के भाव को अपने व्यवहार से ही आरम्भ करें क्योकि कई ऐसी कामनाये दिल कहेगा जिन्हे न्याय की परिभाषा अनुचित सिद्ध करदेगा और मन उनके त्याग का मार्ग भी बताएगा |
त्याग, अहिंसा , अपरिग्रह सारे गुण बहुत बड़े और सामान्य आदमी से दूर दिखते है आप केवल अपना खाना , सुख और ख़ुशी बांटना चालूकरें और दूसरे के दुःख में भागी दार बने ,मेरा यह अकाट्य मनना है ये गुण आपमें स्वयं पैदा हो जाएंगे |
आपको प्रेम , दया करुणा का भाव चाहिए तो आप उन अबोध सुन्दर शिशुओं को देखिये जिनके पास खूंखार कुत्ते और पशु बैठे अपना स्वाभाव छोड़कर दुलार कर रहे होते है |
मन कि व्यस्तताओं में आप पर समय ही कहां है परन्तु ईश्वर ने आपको जो समय दिया है उसपर जिस जिस का हक है वह समय उन्हें अवश्य दें यहीं से आपका सर्वांगीण विकास संभव है ।
न्याय का सम्बन्ध आपके हर कार्य से बंधा है ,आप अपनी सोच को केवल यह समझाएं कि आपको हर कार्य और चिंतन से पहले उसके अच्छे बुरे पक्ष के बारे में सोचना है |
सत्य बोलना बहुत बड़ा गुण है मगर यदि आपको इसकी आदत नहीं है तो आप चुप रहकर स्वयं को प्रदर्शित करे इससे जल्द ही आप सच के पक्ष धर हो जायेंगे ।
दूसरों से छीनने की लूटने की और स्वयं को बड़ा बताने की चेष्टा आपको छोटा बना रही है , आप एक बार दूसरों को वह सब दें जो आप अपने लिए चाहते है ईश्वर आपको कई गुना लौटा देगा आप विश्वास रखें |
न्याय का भाव सकारात्मकता से आरम्भ होकर सकारात्मकता पर ही ख़त्म होता है ,तो अपनी अंतरात्मा से सबके लिए इतना अच्छा सोचें की अच्छी के शिव कुछ रह ही नहीं जाए |
हम भौतिक संसाधनों , मित्रता , पद और यश छीने जाने कारण अन्याय करने के आदि होते जाते है जबकि यह भूल जाते है कि जो हमारा है उसपर केवल हमारा अधिकार है , और वो हमे मिलेगा ही हमारा था ही नहीं उससे हम उम्मीद भी नहीं करते यह भाव आपको न्याय की सीखमें और बल देगा |
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