Sunday, June 14, 2015

झूठी प्रसंशा पतन का सबसे बड़ा कारण है False praise is cause of downfall

  झूठी प्रसंशा पतन का सबसे बड़ा कारण है 
  False praise is  cause of downfall 

एक शिष्य  समूह ने अपने गुरु से पूछ गुरुदेव  हमारे देश का राजा बहुत ही घमंडी है उसे चाटुकारिता बहुत प्रिय है, वह हमेशा अपने चाटुकारों से घिरा अपने राज्य में अजीबोगरीब हरकतें करता रहता है, कभी वह किसी को बे वजह दंड दे देगा कभी वह बिना किसी कारण के दूसरों से अपनी तुलना करने लगेगा ,और उसके द्द्वारा कभी भी किसी को भी फांसी चढ़ा दिया जाता है क्योकि वह राजा की प्रसंशा नहीं कर पाया था , गुरुने पूछा वहां कोई धर्म पारायण ग्यानी  पुरोहित या श्रेष्ठ मनुष्य नहीं है क्या, शिष्यों ने बताया हाँ महाराज वहां के राज पुरोहित बहुत ग्यानी और विद्वान है ,शास्त्रार्थ  में उनसे कोई नहीं जीत पाता , मगर उन्हें भी अपनी योग्यता पर बहुत घमंड है, और दोनों ही अपने अपने कार्यों में व्यस्त रहते है ,पुरोहित जी भी समय समय पर लोगो को शाश्त्रार्थ में हरा कर सार्वजानिक रूप से सजा देते है , गुरु गंभीरता से बहुत देर सुनते रहे अचानक वे अपने शिष्यों से बोले पुत्र जाओ आप दो समूहों में बंट कर राजा और राज पुरोहित की झूठी प्रसंशा करो ,इस समय आपका काम बिना सोचे प्रसंशा करना ही रहे बस ,शिष्यों ने गुरु को प्रणाम किया और अपने गंतव्यों की और चलेगये राजा से शिष्यों ने कहा महाराज आपके यश बल और ज्ञान की चर्चा सर्वत्र हो रही है आपका रूप , यौवन , ज्ञान और बल की पूरी दुनियां दीवानी है , पड़ौसी राज्य की  जनता भी आपके गुणों की तारीफ़ करने से नहीं थकती और आप बाहुबल धन बल और शौर्य में सबसे श्रेष्ठ है , बड़े शिष्य ने बोल रहे शिष्य की ओर विस्मय से देखा, की पड़ौसी राजा बहुत बलशाली और बहुत बड़े राज्य का मालिक है ,उसे कोई नहीं जीत सका और उसकी धर्म परायणता के किस्से जगह जगह सुनाये जाते है ,वो इससे सब अर्थो में श्रेष्ठ है ,पर झूठी प्रसंशा की बात सुन कर वो चुप रहा ,दूसरे शिष्य ने राज पुरोहित को यही कहा, महाराज आपके ज्ञान , तपश्चर्या और त्याग के किस्से आज राज्य और राज्य से बहार भी सुनाये जाते है लोग आपके ज्ञान का लोहा मानते है ,और राजा भी आपके ज्ञान के कारण ही शांति से राज्य कररहे है , भावावेश में राज पुरोहित राजा को बुरा भला कहने लगा , राजा को तुरंत खबर हुई उसने राज पुरोहित को बुलाया दोनों में विवाद होने लगा राजा खुद को बगड़ा बताने लगा पुरोहित अपने को , राजा बोला सब कह रहे है मैं  सबसे ग्यानी हूँ ,बलशाली हूँ ,पड़ौसी राज्य वाले भी कहीं नहीं लगते मेरे सामने , पुरोहित ने कहा पड़ोसी राज्य बहुत शक्तिशाली है , राजा ने तुरंत अपनी बात की अवहेलना के लिए पुरोहित को फांसी पर चढ़ावा दिया, और पड़ोसी राज्य पर हमला कर दिया पड़ौसी राजा को राजा की मूर्खता पर पहले से ही संदेह था उसने पलक झपकते ही युद्ध जीत लिया ,और अपना धर्म पारायण राज्यउस राजा के साथ मिला कर और बढ़ा लिया , दुष्ट राजा इस युद्ध में मारा  गया |
  

मूर्ख और अहंकार  से ग्रस्त महा ग्यानी की दशा एक जैसी ही होती है महा ग्यानी को ज्ञान का अतिरेक का अहंकार एक कीटाणुं की तरह उसके सम्पूर्ण ज्ञान का छरण करने लगता है , उनसे जीतने का केवल एक ही  शस्त्र है वह है उनकी झूठी प्रसंशा क्योकि मूर्ख की अति प्रसंशा उसे और अधिक मूर्खता करने के लिए बाध्य करती  है, और एक दिन उसकी बढ़ती हुई मूर्खता  उसके पतन का कारण बनजाती है ,दूसरी और महाज्ञानी यदि अहंकार के कीटाणु से ग्रस्त है तो वह भी झूठी प्रसंशा के कारण और अधिक स्वछन्द और स्वार्थी हो जाता है वह ज्ञान और धर्म का प्रयोग अपने हिसाब से करने लगता है , और आदर्शों और सत्य की परिभाषाये भी अपने हिसाब से बना डालता है ,परिणाम यह कि उसका यह भाव उसे ही नष्ट कर डालता है जबकि वह स्वयं को ग्यानी और सर्वश्रेष्ठ समझता रहता है ,परन्तु  अहंकार उसे कब भ्रष्ट , असत्य और अनादर्शों के तराजू में रख कर  असफल सिद्ध कर देता है यह मालूम ही नहीं पड़ता |


आधुनिक युग में हम सब आदी  होगये है अपनी प्रसंशा सुनने के, हमारा हर कार्य  प्रसंशा के लिए होने लगा है , हम धन ,बल, रूप, रंग ,सौंदर्य और सर्वश्रेष्ठ बनने के लिए इतने लालायित है कि उसके लिए किसी भी हद  पर जाने को तैयार दिखते है , जबकि हम यह जानते है  इन सब चीजों में सर्वश्रेष्ठ साबित होने के लिए हमें दूसरों की तुलना में खड़ा होना होगा और जहाँ से भी कोई तुलना आरम्भ होती है वहां से तमाम नकारत्मकताएं अपने आप आरम्भ हो जाती है, आज जो धन , बल, रूप, रंग, यश वैभव मेरा है कल वो दूसरे का होगा जो सौंदर्य मेरे नाज का विषय था कल किसी और को उपकृत करेगा और वह हर गुण  कल  जो मुझे सबकी तुलना में श्रेष्ठ साबित करने के लिए दिखाना होता था आज दूसरों के पास था और यही सत्य भी था , मैं  झूठी प्रसंशा के कारण कभी अपना स्वरुप ही नहीं देखा पाया कि वास्तव मैं मैं  हूँ क्या | 


 कई बार हमारे साथ यही होता है कि  हम अपने प्रयत्नों से जो अर्जित नहीं कर   रहे होते उनकी भी प्रसंशा हमे लोग दे रहे होते है , जबकि आत्मा की गहराइयाँ यह जानती है  कि उसपर किसी और का हक है, परन्तु स्वार्थों के वशीभूत वह प्रसंशा हमें मिल रही है , प्रसंशा एक ऐसा नशा है जिसका आदी  मनुष्य उस   नशेड़ी की तरह व्यवहार करता है जैसे  उसका अस्तित्व इस पर ही निर्भर होकर रहगया है , नशे के  पूर्णतः  आदी  रोगी की तरह उसकी गति बड़ी दयनीय होती है जिसमे हर एक से यही याचना छुपी होती है वो कैसे भी आपकी प्रसंशा करें , मित्रों भिखारी को कम्बल ,पैसे , भीख देते में आप भिखारी से भी प्रसंशा की मांग कररहे होते हों कि भिखारी और देखने वाले आपको झूठी प्रसंशा दे सकें |

  how are  you -----fine         looking --------smart 

इन्हीं शब्दों के बीच कही छुपा है एक ऐसा व्यवहार जो आँखों ही आँखों में अपनी तुलना करके  देखना चाहता है की मैं  कैसे सामने वाले से श्रेष्ठ हूँ , मेरा पहनावा ,ओढ़ावा , चलने बैठने उठने बोलने चालने और तथा संसाधनों की बहुतायत या आभव सब मिलकर ही तो मैं समाज को प्रदर्शित कररहा होता हूँ और वह समाज आप भी उसे वैसा ही उत्तर देकर उसकी आत्मा को शांति  देंगे इसलिए वह भी आपकी और देख रहा है , और हम सब एक सी मांग लेकर जीवन के समायोजन कररहे है ,एक दूसरे से हजारों शिकायतें लिए ,लेकिन ध्यान रहे कि  हमें ये खोखलापन हमारा वही व्यक्तित्व दे रहा है जिसे हम  बिना गुणों के प्रसंशा पाने के लिए दूसरों के हाथ में सुपुर्द कर चुके होते है | 


भारतीय साहित्य और धर्म ने कई स्थानो पर यह लिखा कि मनुष्य को मनुष्यता और आदर्शों के  गुण साहित्य और धर्म ही सिखा सकता है तो कई साहित्य कारों ने यही भाव लिखा 

|| निंदक नियरे रखिये आँगन कुटी छबाय || बिन पानी साबुन बिना निर्मल कराइ सुभाय || 

अर्थात अपनी आलोचना करने वाले को अपने साथ ही रखना चाहिए जिससे वह आपको आपकी गलतियों के लिए समयानुसार सुझाव दे सके ,और इस प्रकार वह पानी और साबुन के बिना ही आपके आचार विचार और व्यक्तित्व को पवित्र कर सकता है मगर आज के युग में ------ जब भी आप समझाइश दे , ये आपका टाइम नहीं है  ,किया ही क्या है आपने , मेरी गलती निकालेगा ---- how dare he say  ,  और भी तरह तरह के वाक्यांश , सत्य का और आदर्शों की बात आपको स्ववकार ही नहीं है क्योकि जीवन ने आपको आपकी आत्मा के सामने आने का अवसर ही नहीं दिया आप भी जानते थे आप गुणों , और संसाधनो में समय और समाज से हारे हुए है और ऐसे में आपको केवल ऐसी झूठी प्रसंशा की आवश्यकता है जो आपको झूठा ही सही मगर थोड़ा सकूँ अवश्य देदे | दोस्तों यही कहीं से जीवन में बदलाव का सूत्र आरम्भ  होगा बस इस नशे का त्याग सबसे आवश्यक है 

  

एक दिन जीवन ने खुद को पलटकर देखा वहां हजारों लुटेरे खड़े थे जिसे जितना बड़ा स्वार्थ था ,उसने उतना ही बड़ा झूठी तारीफ के  अम्बार खड़े कर दिए और जैसे ही हमे उस प्रसंशा का नशा चढ़ा उसने नशे की हालत में हमे कई बार हमें  लूटा और जैसे ही उसका मतलब ख़त्म हुआ वह जीवन से गायब हो गया ,और हम झूठी प्रसंशा के आदी ।  वो लोग झूठी प्रसंशा के जाल में फसाने वाले शिकारी बने रहे ,हमारा नशा इतना अधिक हो गया था कि  हमपर कि हर सच्चाई हमें रूढ़िवादी , हर आदर्श और सत्य हमे दूसरे युग का  वाक्य  लगा, 
 आईना हमे पलट कर रख देना पड़ा क्योकि झूठी प्रसंशा के नशे में हम स्वयं का सामना करने का साहस ही नहीं जुटा पाये थेजीवन के सत्य के सामने हम यह मानाने  को तैयार ही नहीं होते कि एक दिन यौवन, धन , बल सौंदर्य सब दूसरों के हक में होंगे समय के साथ चलता चलता शरीर मन मष्तिष्क सब हार जाएगा तब  मन और आत्मा उस भाव को ढूंढेगी जिस पर वह सही मायनों में आपको  प्रसंशा दे पाये और यह कह पाये  कि आप जिंदगी के खेल के एक और सफल खिलाड़ी सिद्ध हुए आपको सलाम है | 


जीवन के इस भाग में इन्हें भी आजमाइयें 

  • अपने व्यवहार और बात चीत में सामान्य रहने का प्रयत्न कीजिये क्योकि यहीं से आपको जीवन में सरलता का गुण आरम्भ होगा और यहीं से जीवन में सहजता के साथ व्यवहार करना सीखेंगे हम | 
  • आप अपने आपको पूर्ण मानकर  ईश्वर को समर्पित कर अपना जीवन कार्य आरम्भ करें इससे आपको अपने आपमें पूर्णता का ज्ञान होने लगेगा और यही से आपको नया मार्ग प्राप्त हो सकता है | 
  • दूसरों की प्रसंशा के  आशय से स्वयं को दूर रखें और यह माने कि यह प्रसंशा आपके उन कार्यों की है जिनमे सम्पूर्ण समाज परिवार परिवेश सबका हिस्सा है और यह प्रसंशा सबकी है | 
  • प्रसंशा का सबसे केंद्र है मन जब आपकी आत्मा आपको श्रेष्ठ साबित कर दे बस आप यह जान लीजिये की आपको अब किसी बाह्य प्रसंशा की आवश्यकता नहीं है 
  • उन  वस्तुओं और गुणों  पर प्रसंशा की कामना न करें जो समय और परिस्थिति के कारण बदल जाने वाली है क्योकि उनका स्वाभाव ही ऐसा है  | 
  • सत्य आदर्श और सबका सम्मान करने का गुण ये सब आपमें होना ही चाहिए क्योकि इन गुणों के कारण ही आपको स्वयं से प्रसंशा प्राप्त होती है | 
  • प्रत्येक व्यक्ति में अलगअलग गुण   विद्यमान है आप उससे यदि ज्ञान में श्रेष्ठ है तो वह रूप में श्रेष्ठ हो सकता है अर्थात वसमें भी कोई न कोई गुण  है  जिसकी प्रसंशा आपको करनी चाहिए | 
  • झूठी प्रसंशा करने वालों से सावधान और दूरी बनाये रखें क्योंकि ये आपके विकास पथ पर आपको अकर्मण्य बना देते है और आपका मानसिक स्तर भी ख़राब कर देते है | 
  • जीवन में काम बोले सुने ज्यादा और उससे ज्यादा चिंतन करें इससे हर इंसान का असली स्वरुप आपके सामने होगा और सहजता में आप ठगे नहीं जाएंगे | 
  • अपनी आलोचना करने वालों से अच्छा व्यवहार बनाये रखिये एक दिन आप इनके कारण ही उन्नति के शिखर पर पहुंचेंगे | 
  • हर  प्रसंशा जप बाह्य व्यक्ति द्वारा की जा रही है उसका उद्देश्य क्या है इसका उत्तर आपको सहजता में मिल जाएगा आप वैसा ही व्यवहार करें जैसा अंतरात्मा कहें | 
  • भावावेश में कोई निर्णय न ले झूठी प्रसंशा के बाद आपको कड़वा जहर भी पीने को दिया जा सकता है यह हमेशा ध्यान रखें |

Sunday, June 7, 2015

powerful rule of universe (Get what you sow) ब्रह्माण्ड का शक्तिशाली नियम जैसा बोओगे वैसा ही पाओगे

powerful rule of universe (Get what you sow)
ब्रह्माण्ड का शक्तिशाली नियम

 जैसा बोओगे  वैसा ही पाओगे 

कृष्ण पांडवों से कह रहे थे पुत्र हम जाने अनजाने और किसी भी क्रियान्वयन और चिंतन के फल को बदल नहीं सकते कर्म का फल तो सबको ही भुगतना होता है उससे देवता भी मुक्त नहीं हो सकते ,यह कहते हुए कृष्ण  ने कहा यह देखो ---
युद्ध क्षेत्र में  पितामह भीष्म शर शैय्या पर पड़े थे और लोगों  की भीड़ लगी थी उनसे मिलने को सब अपने अपने हिसाब से उनके पास अभिलाषा लिए खड़े थे अचानक पांडवों के साथ भगवान वासुदेव कृष्ण पधारे , उनकी पदचाप सुनते ही मौन भीष्म ने अपनी आँखें खोली और उन्हें प्रणाम किया, कृष्ण बोले आपको असह्य पीड़ा है मैं  जानता हूँ भीष्म ने हंस कर कहा आप तो सब जानते है जनार्दन मुझे इन  बाणों की तकलीफ नही है मुझें तकलीफ इस बात की है कि  मैं मरते वक्त भी सत्य  का ज्ञान होते हुए भी मुझे असत्य के लिए लड़ना पड़ा ,अचानक अर्जुन ने पूछा पितामह आपके हाथ में तो इच्छा मृत्यु है फिर यह कष्ट क्यों ?भीष्म ने गंभीर स्वर में  कहा पुत्र इसके दो कारण है प्रथम तो यह कि इस समय सूर्य दक्षिणायन है और जब तक उत्तरायण नहीं होता तबतक मुझे प्राणों को रोककर रखना होगा ,दूसरा यह  कि  एक जन्म में मैं एक सम्राट था अपनी रानी के साथ एक बार मैं  बगीचे में घूम रहा था अचानक रानी  चिल्लाई सांप सांप मैंने बिना कुछ विचार किये अपने हाथ की छड़ी से उसे दूर फ़ेंक दिया पुत्र वह सांप एक बेरिया की झाडी पर गिरा और जैसे जैसे वो हिला उतने ही कांटे उसकेशरीर में चुभ गए पुत्र आज भी मैं  उस अपराध बोध से मुक्त नहीं हो पाया हूँ , आज जब मई शर शैय्या पर हूँ उतने ही बन मेरे चुभे है जितने उस सांप को चुभे थे ,पर  मन काफी हल्का है ,लगता यह है अब मेरे जीवन का कोई भी ऋण मुझ पर बाँकी नहीं रह गया है ---यह कहकर भीष्म मौन होगये और कृष्ण पांडवों की और देख कर मुस्कुरा दिए |

  महाभारत में यह  घटना कितनी सत्य या असत्य है यह प्रश्न नहीं बल्कि यहाँ यह किस्सा शायद युवाओं को  कुछ दिशा निर्देशित जरूर करेगा

जीवन भी एक ऐसा हिसाब का गणित है जो हर कर्म का हिसाब मय  ब्याज के चुकता  करने का सामर्थ्य रखता है , सामान्यतः जब जीवन अपने यौवनके वेग की शक्तियों की अधिकता महसूस कररहा होता है उस समय अच्छे बुरे , कर्त्तव्य और उसकी दायित्वशीलता तथा सत्य और असत्य, का भेद कुछ मालूम ही नहीं होता हम अपनी शक्ति के चरम पर उन सारे सत्यों को सहज ही भूल जाते है जो मानवीयता के लिए भी निर्मित हुए है ,हम कैसे भी जीत हांसिल करने की जल्दी में अपनों को ही  कुचलते हुए आगे बढ़ जाते है ,हमें यह कभी एहसास ही नहीं हो पाता  कि इससे हमारे अपनों को कितना कष्ट हुआ होगा , परन्तु जब उसके परिणाम हमारे सामने आते है तब हमारे पास कोई रास्ता ही नहीं बचता  क्षमा के लिए , यह जीवन भर एक बड़े अपराध बोध की तरह हमें मुंह चिढ़ाता रहता है | 

 प्रकृति के नियमों और सिद्धांतों में  क्षमा जैसा कोई शब्द नहीं होता वहां सारे न्याय शास्वत अवस्था में वैसे ही होते है जैसे आपने कर्म किये है , एक बहुत बलबान आदमी कुंएं की मेड पर खड़ा जोर जोर से गालियां बक रहा था अंदर से कोई पहलवान उसे भी गालियां दे रहा था , अचानक एक साधू ने उसे रोक और कहा  पुत्र नहीं, आप अपनी जवान क्यों ख़राब करते हो मेरे कहने से एक बार वो बोलो जो  मैं कहता  हूँ  उसने  दोहराया मैं तुम्हे बहुत प्यार करता हूँ आदर से आवाज आयी मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ , मुझे क्षमा करदो वैसी ही प्रतिध्वनि फिर आई , साधु ने समझाया पुत्र हम अपने कर्म को न बदलते हुए सबको  अपने अनुसार कार्य करते देखना चाहते है ,तब सहज ही हमारा अपनी ही अंतरात्मा से युद्ध होने लगता है जबकि सामने वाला केवल माध्यम भर होता है हमसे युद्ध करने वाले के स्वरुप में ,  हम जैसा सबके बारे में सोच रहे होते है वैसा ही वेलोग हमारे बारे में सोचने लगते  है  फिर शिकायत कैसी | 

सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में हम  जड़ और चेतन किसी के लिए भी जो विचार प्रेषित करते है वे विचार हजारों मौन की अद्भुत सांकेतिक भाषा में उस तक पहुँच जाते है जिनके लिए वो प्रस्तुत हुए है , ब्रह्माण्ड की अनगिनत शक्तियां आपके नकारात्मक और सकारात्मक भावों को इसीतरह कई गुना बढ़ाकर आपके साथ व्यवहार पैदा करती है ,भारतीय धर्मशास्त्र के तांत्रिक अध्याय में ऐसे कई वर्णन है जहाँ दूर से ही वैचारिक संवाद किये जा सकते थे ,ब्रह्माण्ड की शक्तियों को एकाग्र चित्त से धारण करके वैसे ही गुण  धर्म व्यक्ति में पैदा किये जा सकते है जिन शक्तियों की वह उपासना कररहा है | 

यहाँ यह स्पष्ट है कि आप जो ब्रह्माण्ड को दे रहें है वहीँ कई गुने में परिवर्तित होकर आपको मिलने वाला है चाहे वह धोखा है , या कोई छल आप यहाँ  यह अवश्य ध्यान रखें कि  छल ,  बल ,अपने अंत में आपको उस फल तक अवश्य ले जायेंगे जहाँ आपको आपकी बुद्धि के हिसाब से ही फल मिलेगा, और वह वही होगा जो आप ब्रह्माण्ड को दे रहे  है ,जब आपके सारे कर्त्तव्य और सोच के बिंदु प्रकृति की उस प्रयोगशाला में लिपिबद्ध हो रहे है जहाँ आपकी एक भी सोच और कर्त्तव्य उसके फलों से मुक्त नहीं होगा तब आपको सजग होना आवशयक होगा और सजगता का यह अध्याय आप आज ही कंठस्थ करलें तो अधिक अच्छा रहेगा । 



ईश्वर  सबसे शक्तिशाली प्रयोग  शाला का एक सर्वोत्कृष्ट वैज्ञानिक है ,जो आपको भौतिक रूप में अपने अनगिनत नेत्रों से उसी प्रकार नजर में रखता है जैसा  कि सुपर कम्प्यूटर अपनेसी सी टीवी कैमरों से एक क्षेत्र पर निगाह बनाये रखता है , परन्तु ईश्वर की तकनीक केवल बाह्य आवरण , परिवेश  को ही नहीं अपितु ,मन मष्तिष्क की सोच को भी अपनी सुपर मेमोरी में नोट करके रखती  है और उन्हीं फलों को  चाहते न चाहते हमें  भोगना ही होता है | अतैव न्याय की इस बड़ी पाठ  शाला में हम सब अपने को यदि पूर्ण सफल और श्रेष्ठ देखना चाहते है तोहमें  जड़  , चेतन , और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में सकारात्मक ऊर्जा का विकास करना चाहिए, जिससे आपकी सकारात्मक ऊर्जा ब्रह्माण्ड की सकारात्मकता पा कर आपको अनगिनत सफलता के वो पुरूस्कार दे पाये जिससे इंसान देव तुल्य हो जाता है |

जीवन  की  सार्थकता के लिए निम्न को अपनाएँ 
  • हमारी उपस्थिति से हमारा समाज राष्ट्र और परिवार तथा परिवेश सब बंधा है और हमारे हर कार्य से   उसमे धनात्मक और ऋणात्मक परिवर्तन होने ही है इसका हम ध्यान रखें | 
  • ब्रह्माण्ड में हमारा हर कार्य और सोच एक ऐसी वैज्ञानिक प्रणाली से जुडी है जिसका आकलन करने हमे दण्डित या पुरस्कृत किया जाना है अतैव  अपने कर्तव्यों और सोच का ध्यान रखिये | 
  • समाज और  अपने परिवेश के साथ हम सहज और सरल भाव से मिलें और समय समय पर अपने व्यवहार का आकलन करते रहे समयानुसार उसमे धनात्मक परिवर्तन करें | 
  • जीवन और जड़ चेतन सबके प्रति सकारात्मक सोच बनाये रखिये क्योकि जीवन में आपकी सकारात्मक सोच के परिणाम भी अति सकारात्मक होकर ही मिलने वाले है | 
  • सत्य की सफलता का कोई शार्ट कट नहीं होता , आप आपने आदर्शों पर चलते हुए अपनी राह बनाइये आपको दीर्घ कालिक सफलता अवश्य प्राप्त होगी | 
  • क्षण भंगुर सुख के लिए अपने आदर्शों  से समझौता मत कीजिए क्योकि थोड़े समय बाद आपका यह त्याग आपके भविष्य को बहुत बड़ी सफलता देने वाले है | 
  • आपके कारण किसी को कष्ट नहीं पहुचना चाहिए यदि ऐसा हुआ तो आपकी सफलता में नकारात्मकता स्वयं शामिल हो जायेगे जो आपको अंत में असफल सिद्ध कर देगी | 
  • आप  अपनी तुलना दूसरों से करके स्वयं को सफल सिद्ध करने का प्रयत्न न करें , क्योकि दूसरों की सफलता के साथ ही आप सफल सिद्ध हो सकते है | 
  • ब्रह्माण्ड की शक्तियों को एकाग्र होकर समझने का प्रयत्न करें एवं उसको सकारात्मक भाव से  स्वीकार करें साथ  ही समय समय पर अपने व्यवहार में धनात्मक परिवर्तन भी करें | 
  • किसी भी नकारात्मक व्यक्ति या स्थिति का चिंतन निरंतर नहीं करें क्योंकि इससे अपने  व्यवहार और शक्तियों में भी नकारात्मकता आ जाती है |

अनंत कामनाएँ,जीवन और सिद्धि

  अनंत कामनाएँ,जीवन और सिद्धि  सत्यव्रत के राज्य की सर्वत्र शांति और सौहार्द और ख़ुशहाली थी बस एक ही  कमी थी कि संतान नहीं होना उसके लिए ब...