Sunday, August 3, 2014

विकास, भारतीय मूल्य और संस्कार

वर्तमान में युवा मष्तिष्क में विकास उन्नति और अपना परचम  सम्पूर्ण विश्व में फहराने की आकांक्षा बनी रहती है इसीप्रकार राष्ट्रों  होड़ मची है की वे अपने  पूर्ण विकसित करने की चेष्टा कर सकें , और हर जगह एक गाला काट प्रतियोगिता सी दिखाई दे रही है , भावना  विहीन विकास जिसमे केवल स्वयं के अलावा कुछ नहीं है , और कैसे भी विकास के चरमोत्कर्ष पर पहुँच कर स्वयं को साबित कर पाये , उसके लिए चाहे कुछ भी करना हो परन्तु वह विकास  उसके ही नाम होना चाहिए । अब ऐसी स्थिति में जब हर व्यक्ति अपने अपने विकास के लिए संकल्पित है सम्पूर्ण समाज में एक ऐसी स्थिति निर्मित हो गई है जहाँ केवल अपनी इच्छाएं ,अपने स्वार्थ अपनी उपलब्धियां , महत्वपूर्ण रह गई है चाहे उसके बदले समाज ,हमारे अपनों को कितना भी कष्ट क्यों न झेलना पडे । 

शिक्षा , चिंतन , तकनीकी और समाजार्थिक दृष्टी से हमने बहुत उन्नति की है सम्पूर्ण विश्व सुपर कम्यूटर के युग में खड़ा है राष्ट्रों के सुरक्षा साधन एटम बम्ब परमाणु बॉम्ब और हाइड्रोजन बोम्ब के रूप में बदल गए है । जन  उपयोग में आने वाली हर वस्तु  की मात्रा और गुणात्मक आधार और अधिक बढ़  गए है , जल थल नभ में सुरक्षा के अति विकसित साधन रक्षा क्षेत्र में खड़े हो गए है ,लोगो की कार्य क्षमता , शिक्षित और पेशेवर क्रियात्मक शिक्षा ,से युवा लाभान्वित हुआ है , जो माता पिता बच्चे को दूर के स्कूल में भेजने में डरते थे वो आज उच्च शिक्षा और काम के लिए बच्चो को हजारों किलोमीटर दूर  भेज कर विकास का लाभ ले रहे है , कहने का आशय यह की सम्पूर्ण विश्व एक विकास की दौड़ का मैदान बन गया है  और हर एक को जल्दी है की वह कैसे भी स्वयं को सिद्ध करके आगे बढ़ जाए | 

पेशेवर विकास की दौड़ में हम यह भूल गए की विकास के आधार पर खड़ा हुआ हमारा अस्तित्व स्वयं अपने लिए ही एक छलावा साबित हो रहा है ,हमे जल्दी में अपने आपके लिए और कुछ सोचने का वक्त ही नहीं रहगया है ,की हम  इस प्रगति से प्रसन्न है भी की नहीं , यहाँ कोई किसी को सम्मान , आदर , और प्रभुत्व देने  के लिए तैयार नहीं है सब यही सिद्ध करना चाहते है की वे सर्व श्रेष्ठ है , परन्तु दोस्त, बड़ा मानने के लिए भी तो एक पक्ष होना चाहिए जो आपकी सत्ता को स्वीकार  कर आपको बड़ा मान कर सम्मान दे पाये , परन्तु हमारे विकास में यही कमी रह गयी की वह दूसरों के सुख दुःख ,और उनके चिंतन से दूर केवल अपने ही स्वार्थो के चारो और लिपट कर रह  गया है जबकि हमारा विकास दूसरों के सुख का कारक होना चाहिए था | 

भारत को विश्व गुरु माना गया है यहाँ की सभ्यता में संस्कारों , संस्कृति और उसके मूल्यों को समझने की शक्ति नैसर्गिक मानी  जाती थी बाल्य  अवस्था  से  युवा अपने अपने परिवार में मूल्यों और  एक श्रेष्ठ अनुसाशन  जीता था , धर्म  मान्यताएं पहले  संस्कृति ,समाज और दूसरों को वरीयता देती थी , सम्मान आदर और समाज में स्त्री शक्ति को माँ  बहिन,  बेटी और देवी के रूप में माना गया था ,पिता माता और समाज के प्रत्येक व्यक्ति को सम्मान  और आदर के बड़े पदों में रखा जाता था , सत्य अहिंसा , अपरिग्रह , परमार्थ और उच्च शिक्षा जैसे गुणात्मक आधारों की नीवों में केवल परहित का भाव बना रहता था ,और यही वो भारत था जिसको विश्व  गुरु की पदवी दी गई थी | 

 भारतीय संस्कार और संस्कृति के मूल्य राजा सगर की उन  संतानों से आरम्भ समझे जिन्होंने परहित के कारण कई पीढ़ियों को बलिदान कर गंगा को आरम्भ होने का मार्ग दिया ,भारतीय सभ्यता का इतिहास गवाह है की दूसरो के हित  के कारण नानक तुलसी  बुद्ध , और ईश्वर  ने कई बार अवतार लिए है और पीड़ित मानवीयता को सहायता दी है | 

 संस्कारों एवं  मूल्यों के बिना  पेशेवर विकास वैसा ही है जैसे एक जानवर की बोटियों को चींथते पक्षी जिनका                    चरम लक्ष्य  ज्यादा से ज्यादा मांस अपने हिस्से में लेकर स्वयं को सफल सिद्ध करना होता है  जबकि उस जानवर की पीड़ा और उसका दर्द उनके लिए कोई मायने नहीं रखता |  बस हम सब भी अपने स्वार्थों में लगे है अपने संस्कारों औरपरहित भाव की अनदेखी कर रहे है  तो हम श्रेष्ठ कैसे हो सकते है | 



संतोष के स्तर का मूल्याकंन   मन को करना होता है और मन का खुश एवं दुखी होना दूसरों पर ही निर्भर होता है 
क्योकि मन धन, सम्पदा , श्रेष्ठता , निकृष्टता हीन और उत्तम   ये सब दूसरों के मानने से ही बड़े छोटे दिखाई देते है जो मन किसी के दुःख और सुख का अनुभव नहीं कर सकता वह जीवन में अपने संतोष के चरम को कभी प्राप्त नही कर सकता 

 संस्कारों एवं  मूल्यों का एकी कृत सम्मिश्रण ही वास्तविक विकास है जिसमे दीर्घ कालिक शांति  समाहित है इन तथ्यों को अपने चिंतनीय  विकास के विषयों  में शामिल करें | 
  •  हम जो भी कर्म करते है उसका सम्बन्ध तो दूसरों से होता है मगर हमारी मानसिकता में अपना ही अपना सोचना अर्थात स्वार्थ होता है यदि ये मानसिकता भी परहित का भाव लेले तो सफलता निश्चित है | 
  • मूल्यों की अनुपस्थिति से विकास का अर्थ हम अपनी धन, सम्पदा ,वैभव और चल अचल संपत्ति में तो वृद्धि कर सकते है मगर , मन  की खुराख वो आदर्श है जो आपने प्रयोग ही नहीं किये , अर्थात विष के प्याले में अमृत भरना उसे भी दूषित कर देगा | 
  • स्वानुशासन , सत्य , सहजता सरलता ,और कठिन परिश्रम के साथ परहित के भाव हेतु किया गया प्रत्येक कार्य सफल ही रहता है चाहे उसमे कुछ बाधाएं आएं या थोड़ा विलम्ब हो मगर वह मन के लिए तृप्ति कारक  ही होगा 
  • विकास में वेदोक्त ,पृथक २ धर्म के अनुशासन  के आधारों को भी ध्यान रखना आपको सफलता के साथ अनेक प्रकार की प्रसन्नता दे सकता है | 
  • प्रकृति का एक नियम यह भी है की वह अपने आप पर उधारी नहीं रखती आप जितना अधिक परहित में कार्य करेंगे आपको उतनी ही अधिक प्रसन्नता अपने आप से होगी | 
  • विकास बहुत आवश्यक है मगर उसके लिए भी एक नियत अनुशासन अवश्य चाहिए यदि अनियंत्रित विकास स्वार्थों में हुआ तो वह स्वयं को ही नष्ट कर देगा | 
  • वर्तमान पाश्चात्य देशों की तर्ज पर होने वाला विकास समाज को हिंसात्मक प्रवृति की और धक्का दे रहा है जबकि उससे पैदा हुआ असंतोष घोर हिंसा , आत्महत्या और राष्ट्र को आतंकी गतिविधियों की और मोड़ रहा है | 
  • मन को एकाग्र करके अपने उद्देश्य और कर्म को पूजा समझ कर करने वाली संस्कृति है भारत और हमें अपने धर्म मूल्यों के अनुसार ही कर्म को सम्पादित करना  चाहिए। 
  • सबको आदर सम्मान , और सहायता दें यह मान कर चलें की आपको ईश्वर ने आपकी मानसिकता एवं इन्ही गुणों के कारण सफल बनाया है  


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