Sunday, August 17, 2014

सकारात्मक परिवर्तन की सोच सर्वोपरि है

एक समय की बात है की एक चोर रात्रि के अँधेरे में  अपने घर के बाहर निकला सोचा आज कोई बड़ा हाथ लग जाए तो अच्छा है और इसी उधेड़ बन में वो धनाढ्यों के निवासों के चक्कर लगता ,राज्य प्रासादों के आस पास मंडराता रहा मगर कहीं भी  उसको सुरक्षा में ढील नहीं मिली सुबह हो चली थी , हार थक कर लौटते हुए अचानक उसकी नजर एक झोपड़ी पर गई दरवाजा अध खुला था ,कुटिया में एक साधुबैठा था उसके  सामने चार पक्तियां लिखी थी ,
  • हर कर्म का फल  तुझे ही मिलना है 
  • अनंत कामनाये  या  शांत मन क्या चाहिए तुझे 
  • ईश्वर सब देख रहा है उसे मन में देख 
  • मै  तुझे भी सब दूंगा सब्र  रख
और अंदर झांक के देखा तो पाया , पूर्ण नीरवता थी और ध्यान से देखने पर उसने देखा की एक साधु महाराज अपने भगवान के ध्यान में पूरी तरह डूबे है ,एक कम्बल जमीन पर बिछा है एक कमंडल पास में रखा है चोर ने सोचा यही सही , उसने दबे पाँव जाकर कमंडल और कम्बल उठाया और चलता बना ,ध्यान के बाद साधु महाराज ने सोचा ईश्वर कुछ नया देना चाहता हैमुझे , समय बीतता गया एक रोज साधु महाराज सोकर उठ भी नहीं पाये की एक पागल जैसा आदमी चिल्लाता हुआ उनके पावों में  लिपट गया बोला ये लो अपना कम्बल और कमंडल, मेरा जीना हराम कर दिया है इन्होनें , जिस दिन मै  ये चोरी करके यहाँ से  आगे गया तो एक और घर से   गहने चुरा कर कम्बल में बांध  कर निकलने को ही था कि एक हल्दी चढ़ी  बच्चीको मुस्कुराते हुए , सोते देखा और जल्दी में मै  भाग तो गया मुझे बार बार वो चारों बाते मेरा पीछ करती रहीं और  वो लड़की, उसके स्वप्न ,उसकी गरीबीमें भी शांती  और अपनी लड़की का ध्यान आता रहा और जब मै  वो गहने लौटने गया तो मुझे पकड़ कर  करावास में डाल दिया गया ,मै  कारावास में भी एक पल को चैन से नहीं रह पाया हूँ वो चारो बाते तीर जैसा मेरे अंतः को बार बार घायल कररही है , जब से आपका कमंडल और कम्बल ले गया हूँ तब से एक दिन भी न सो पाया हूँ न मेरी प्यास बुझ पाई है मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा साधु हँसे , पुत्र जब तू ये ले जारहा था तब मैंने तुझे देख लिया था सोचा ईश्वर ने तुझे अपनी सेवा के लिए चुन लिया है पुत्र
जब तक मन में कुछ पाने और परिवर्तन के लिए व्याकुलता नहीं हो तब तक जीवन में कुछ पाया ही नहीं जा सकता या वह पाया हुआ हमे संतोष नहीं दे सकता | 

चोर शरणागत होकरमहात्मा की शरण में चला गया और  एक दिन बहुत बड़े सिद्ध योगी के रूप में अवतरित हो गया | 


मित्रो अधिकांश प्रबुद्ध  अपनी कामनाओं के जाल में इस तरह से लिप्त है कि आॅंख बंद करके भागे चले जारहे है जिसे हम अपने वर्त्तमान के लाभ का विषय मानते है उसके  ही दूरगामी परिणामों से हम भय भीत हो जाते है , और उनसे भागने का प्रयत्न करते है ,जीवन की सार्थकता और उसकी सकारात्मकता को अपने लाभों के लिए विस्मृत कर देना चाहते है ,शायद हमारे आँख बंद करने से परिस्थितियां अनुकूल नहीं बन पायेंगीं वरन  उसके लिए हमें अपना दृष्टिकोण बदलना होगा और यह याद रखें की हमारे दृष्टिकोण बदलते ही हमारी क्रियात्मकता स्वयं सकारात्मक होकर हमारे ही लिए नहीं अपितु हमारे सम्पूर्ण समाज के लिए एक उदाहरण का रूप ले लेगी | 


परिवर्तन  धनात्मक एवं  ऋणात्मक क्रियान्वयनके साथ  हमेशा शेष रहता है केवल हमारी सोच उसे जिन्दा या मुर्दा साबित करती रहती है और हम उसे ही सच समझ कर जीने के आदि होते रहते है ,अपने आपको दोषारोपित करते रहते है , जबकि हमारा चिंतन और विषय के आकलन  की दृष्टी सकारात्मक  होने से ये सारी विपरीत परिस्थितियां हमारे लिए सकारात्मक रूप में खड़ी हो सकती है | 
हम कर्तव्य और कर्त्तव्य बोध से बंधे चलरहे है, हमारा हर काम यंत्रवत होता जा रहा है , पीढ़ियों की आदतों के आधार पर हम भी भागे चले जा रहे है  अपनी वंश  परम्परा   निभाते हुए , इस बात  को अनदेखा किये कि समाज , संस्कृति , आचारों विचारों में तीव्र गामी परिवर्तन होरहे है और  नई सोच तथा उनके अनुरूप हमारी सकारात्मक सोच में भी वृद्धि गामी परिवर्तन होने ही  चाहिए | 

कोई भी व्यक्ति , समाज , और संस्कृति में यदि समयानुसार  सकारात्मक परिवर्तन न हो पाये तो वह संस्कृति , अपने सांस्कृतिक प्रतिमानों के साथ स्वयं नष्ट होजाती है , विश्वकी अनेक सभ्यताओं का मूल्यांकन करने से हमे यह स्पष्ट हो जाएगा  कि जिन सभ्यताओं ने अपने मूल सिद्धांतों के साथ सकारात्मक परिवर्तनों को अपने में स्थान दियाहै केवल वे ही  आज भी अपना  वर्चस्व स्थापित करने में सफल रहे है ,समयके  परिवर्तनों  के साथ  सभ्यता, सोच , और नैतिक मूल्यों के उत्थान को ध्यान में रख कर किये गए परिवर्तन सम्पूर्ण मानवीयता को पुरस्कृत कर सकते  है | 

परिवर्तन के इस युग में जो तथ्य  महत्व पूर्ण है वे निम्न हो सकते है | 
  • सकारात्मकता का विचार अनवरत चलने वाली प्रक्रिया है और वह किसी भी परिस्थिति में लुप्त नहीं हो सकता क्योकि हर स्थिति में सकारात्मकता का बीज अवश्य बना रहता हैं बस उसे पल्लवित करने की चेष्टा की जानी चाहिए 
  • हमें हरदिन सकारात्मकता को नवीन दृष्टी से सोचना आवश्यक है जब तक हम अपने हर कर्त्तव्य को नयी दृष्टी से नहीं सोच पाएंगे तब तक हमारे विचार और परिवर्तन संभव ही नहीं है | 
  • तात्कालिक लाभों के लिए अपने  से समझौता न करे क्योकि यदि हमने अपने कर्त्तव्य में अपने अडिग आदर्शों को आधार नहीं बनाया तो हमारी सारी उपलब्धियां  समुद्र की रेत पर बने चित्रों जैसी होगी जिनका जीवन बहुत छोटा होता है | 
  • राष्ट्र समाज ,संस्कृति सब लाखों करोडो में से कुछ एक लोगो से यह आशा करते है  कि वे आएंगे और एक नई दिशा में मोड़ कर समाज राष्ट्र और सामाजिक प्रतिमानों को उन्नत बनाएंगे हमे उनमे से ही बनकर स्वयं को सिद्ध करना है | 
  • मनुष्य  ईश्वर की सर्वोच्च कृति  है  और उसे यह स्थान इस लिए प्राप्त है कि उसमे परहित का भाव , परमार्थ , सकारात्मक परिवर्तन , और भविष्य को अपने  त्याग  से परिष्कृत करना आता है , और यही सकारात्मक दृष्टी उसे महानतम बनाने में सक्षम है | 
  • हरदिन  किये जाने वाले कार्य को उसकी उत्तम विधिमे पूर्णकरने का संकल्प किया जावे यह भी विचार किया जाना चाहिए  कि मेरे कार्य से समाज राष्ट्र और सम्पूर्ण सांस्कृतिक सभ्यता को क्या लाभ हो पायेगा यदि उत्तर धनात्मक है तो जीवन सफल सिद्ध होगा | 
  • नवीन परिवर्तनों को इस प्रकार स्वीकार कियाजाना चाहिए जिससे  पूर्व संस्कृति , सभ्यता के मूल रूप से छेड़ छाड़  न होते हुए उसके लाभकारी रूप, आदर्शों की ऊंचाइयां और सकारात्मक क्रियान्वयन को और प्रभावी  बनाया जा सके | 
  • हर घटना को आप समालोचना के दृष्टी कोण से विचार करके अवश्य देखे क्योकि इसके बाद ही आप उस घटना को समाज के लिए सकारात्मक सिद्धांत के रूप में प्रस्तुत कर पाएंगे | 
  • प्रथम दृष्टी में किसी भी क्रियान्वयन को  नकारात्मक सिद्ध करने का प्रयास न करें उसके विश्लेषण के बाद ही उसकी धनात्मकताओं को आत्मसात किया जा सकता है | 


Sunday, August 3, 2014

विकास, भारतीय मूल्य और संस्कार

वर्तमान में युवा मष्तिष्क में विकास उन्नति और अपना परचम  सम्पूर्ण विश्व में फहराने की आकांक्षा बनी रहती है इसीप्रकार राष्ट्रों  होड़ मची है की वे अपने  पूर्ण विकसित करने की चेष्टा कर सकें , और हर जगह एक गाला काट प्रतियोगिता सी दिखाई दे रही है , भावना  विहीन विकास जिसमे केवल स्वयं के अलावा कुछ नहीं है , और कैसे भी विकास के चरमोत्कर्ष पर पहुँच कर स्वयं को साबित कर पाये , उसके लिए चाहे कुछ भी करना हो परन्तु वह विकास  उसके ही नाम होना चाहिए । अब ऐसी स्थिति में जब हर व्यक्ति अपने अपने विकास के लिए संकल्पित है सम्पूर्ण समाज में एक ऐसी स्थिति निर्मित हो गई है जहाँ केवल अपनी इच्छाएं ,अपने स्वार्थ अपनी उपलब्धियां , महत्वपूर्ण रह गई है चाहे उसके बदले समाज ,हमारे अपनों को कितना भी कष्ट क्यों न झेलना पडे । 

शिक्षा , चिंतन , तकनीकी और समाजार्थिक दृष्टी से हमने बहुत उन्नति की है सम्पूर्ण विश्व सुपर कम्यूटर के युग में खड़ा है राष्ट्रों के सुरक्षा साधन एटम बम्ब परमाणु बॉम्ब और हाइड्रोजन बोम्ब के रूप में बदल गए है । जन  उपयोग में आने वाली हर वस्तु  की मात्रा और गुणात्मक आधार और अधिक बढ़  गए है , जल थल नभ में सुरक्षा के अति विकसित साधन रक्षा क्षेत्र में खड़े हो गए है ,लोगो की कार्य क्षमता , शिक्षित और पेशेवर क्रियात्मक शिक्षा ,से युवा लाभान्वित हुआ है , जो माता पिता बच्चे को दूर के स्कूल में भेजने में डरते थे वो आज उच्च शिक्षा और काम के लिए बच्चो को हजारों किलोमीटर दूर  भेज कर विकास का लाभ ले रहे है , कहने का आशय यह की सम्पूर्ण विश्व एक विकास की दौड़ का मैदान बन गया है  और हर एक को जल्दी है की वह कैसे भी स्वयं को सिद्ध करके आगे बढ़ जाए | 

पेशेवर विकास की दौड़ में हम यह भूल गए की विकास के आधार पर खड़ा हुआ हमारा अस्तित्व स्वयं अपने लिए ही एक छलावा साबित हो रहा है ,हमे जल्दी में अपने आपके लिए और कुछ सोचने का वक्त ही नहीं रहगया है ,की हम  इस प्रगति से प्रसन्न है भी की नहीं , यहाँ कोई किसी को सम्मान , आदर , और प्रभुत्व देने  के लिए तैयार नहीं है सब यही सिद्ध करना चाहते है की वे सर्व श्रेष्ठ है , परन्तु दोस्त, बड़ा मानने के लिए भी तो एक पक्ष होना चाहिए जो आपकी सत्ता को स्वीकार  कर आपको बड़ा मान कर सम्मान दे पाये , परन्तु हमारे विकास में यही कमी रह गयी की वह दूसरों के सुख दुःख ,और उनके चिंतन से दूर केवल अपने ही स्वार्थो के चारो और लिपट कर रह  गया है जबकि हमारा विकास दूसरों के सुख का कारक होना चाहिए था | 

भारत को विश्व गुरु माना गया है यहाँ की सभ्यता में संस्कारों , संस्कृति और उसके मूल्यों को समझने की शक्ति नैसर्गिक मानी  जाती थी बाल्य  अवस्था  से  युवा अपने अपने परिवार में मूल्यों और  एक श्रेष्ठ अनुसाशन  जीता था , धर्म  मान्यताएं पहले  संस्कृति ,समाज और दूसरों को वरीयता देती थी , सम्मान आदर और समाज में स्त्री शक्ति को माँ  बहिन,  बेटी और देवी के रूप में माना गया था ,पिता माता और समाज के प्रत्येक व्यक्ति को सम्मान  और आदर के बड़े पदों में रखा जाता था , सत्य अहिंसा , अपरिग्रह , परमार्थ और उच्च शिक्षा जैसे गुणात्मक आधारों की नीवों में केवल परहित का भाव बना रहता था ,और यही वो भारत था जिसको विश्व  गुरु की पदवी दी गई थी | 

 भारतीय संस्कार और संस्कृति के मूल्य राजा सगर की उन  संतानों से आरम्भ समझे जिन्होंने परहित के कारण कई पीढ़ियों को बलिदान कर गंगा को आरम्भ होने का मार्ग दिया ,भारतीय सभ्यता का इतिहास गवाह है की दूसरो के हित  के कारण नानक तुलसी  बुद्ध , और ईश्वर  ने कई बार अवतार लिए है और पीड़ित मानवीयता को सहायता दी है | 

 संस्कारों एवं  मूल्यों के बिना  पेशेवर विकास वैसा ही है जैसे एक जानवर की बोटियों को चींथते पक्षी जिनका                    चरम लक्ष्य  ज्यादा से ज्यादा मांस अपने हिस्से में लेकर स्वयं को सफल सिद्ध करना होता है  जबकि उस जानवर की पीड़ा और उसका दर्द उनके लिए कोई मायने नहीं रखता |  बस हम सब भी अपने स्वार्थों में लगे है अपने संस्कारों औरपरहित भाव की अनदेखी कर रहे है  तो हम श्रेष्ठ कैसे हो सकते है | 



संतोष के स्तर का मूल्याकंन   मन को करना होता है और मन का खुश एवं दुखी होना दूसरों पर ही निर्भर होता है 
क्योकि मन धन, सम्पदा , श्रेष्ठता , निकृष्टता हीन और उत्तम   ये सब दूसरों के मानने से ही बड़े छोटे दिखाई देते है जो मन किसी के दुःख और सुख का अनुभव नहीं कर सकता वह जीवन में अपने संतोष के चरम को कभी प्राप्त नही कर सकता 

 संस्कारों एवं  मूल्यों का एकी कृत सम्मिश्रण ही वास्तविक विकास है जिसमे दीर्घ कालिक शांति  समाहित है इन तथ्यों को अपने चिंतनीय  विकास के विषयों  में शामिल करें | 
  •  हम जो भी कर्म करते है उसका सम्बन्ध तो दूसरों से होता है मगर हमारी मानसिकता में अपना ही अपना सोचना अर्थात स्वार्थ होता है यदि ये मानसिकता भी परहित का भाव लेले तो सफलता निश्चित है | 
  • मूल्यों की अनुपस्थिति से विकास का अर्थ हम अपनी धन, सम्पदा ,वैभव और चल अचल संपत्ति में तो वृद्धि कर सकते है मगर , मन  की खुराख वो आदर्श है जो आपने प्रयोग ही नहीं किये , अर्थात विष के प्याले में अमृत भरना उसे भी दूषित कर देगा | 
  • स्वानुशासन , सत्य , सहजता सरलता ,और कठिन परिश्रम के साथ परहित के भाव हेतु किया गया प्रत्येक कार्य सफल ही रहता है चाहे उसमे कुछ बाधाएं आएं या थोड़ा विलम्ब हो मगर वह मन के लिए तृप्ति कारक  ही होगा 
  • विकास में वेदोक्त ,पृथक २ धर्म के अनुशासन  के आधारों को भी ध्यान रखना आपको सफलता के साथ अनेक प्रकार की प्रसन्नता दे सकता है | 
  • प्रकृति का एक नियम यह भी है की वह अपने आप पर उधारी नहीं रखती आप जितना अधिक परहित में कार्य करेंगे आपको उतनी ही अधिक प्रसन्नता अपने आप से होगी | 
  • विकास बहुत आवश्यक है मगर उसके लिए भी एक नियत अनुशासन अवश्य चाहिए यदि अनियंत्रित विकास स्वार्थों में हुआ तो वह स्वयं को ही नष्ट कर देगा | 
  • वर्तमान पाश्चात्य देशों की तर्ज पर होने वाला विकास समाज को हिंसात्मक प्रवृति की और धक्का दे रहा है जबकि उससे पैदा हुआ असंतोष घोर हिंसा , आत्महत्या और राष्ट्र को आतंकी गतिविधियों की और मोड़ रहा है | 
  • मन को एकाग्र करके अपने उद्देश्य और कर्म को पूजा समझ कर करने वाली संस्कृति है भारत और हमें अपने धर्म मूल्यों के अनुसार ही कर्म को सम्पादित करना  चाहिए। 
  • सबको आदर सम्मान , और सहायता दें यह मान कर चलें की आपको ईश्वर ने आपकी मानसिकता एवं इन्ही गुणों के कारण सफल बनाया है  


अनंत कामनाएँ,जीवन और सिद्धि

  अनंत कामनाएँ,जीवन और सिद्धि  सत्यव्रत के राज्य की सर्वत्र शांति और सौहार्द और ख़ुशहाली थी बस एक ही  कमी थी कि संतान नहीं होना उसके लिए ब...