चिंतन की सार्थकता
आदमी नितांत अकेला ही था जब जब मन के भाव अपनी उत्कर्ष सीमा पर पहुचे उसे बार बार अकेले पन का अहसास हुआ उसके मष्तिष्क में यह बात घर करने लगी की उसे दुःख सुख और अपने निर्णय एकगहन एकांत में ही लेने पड़ेंगे और उसने लिए भी लेकिन बार बार यह प्रश्न उठता रहा की शायद वो अपने नज़दीक लोगो का अति चहेता है वोलोग उसके बिना जी ही नही सकते उनका लालन पालन उसे ही करना है या वह उनके आश्रित है मगर वह यह भूल गया की एक स्वतंत्र सत्ता उसके सारे भार संभाले हुए है उसके एकांत में भी वह सहयोगी है और उसका अस्तित्व संपूर्ण ब्रह्माण्ड में परिलक्षित है जो पृकृति और जीवो का पालन हार और जींस का सबसे छोटा अणु है जिसकी जीवन्तता गति शीलता से परिलक्षित है
यही गति शील संरचना जीवन के महत्व को बनाये हुए है यही धनात्मक चिंतन का आधार है यही जीवन की वह सोच है जिसे हम परा दृष्टी कहतेहै फिर इसपर की आवश्यकता विचार क्यो नही किया आदमी के चिंतन का विषय यही से आरम्भ अच्छा है
अब जब सब आस पास का वातावरण ही सोच से परे परे अपने अपने स्वार्थो की आंधी में बह रहे है सबका एक मकसद है की आप उनकी आपूर्तियों को कहातक पूरा कर पाते है आप उनके कहातक के साथी है और प्रत्यक्ष रूप से आप का क्या ओचित्य है यह कटु प्रश्न आदमी के समनेहमेशा खड़े रहते है वो इन्हे अनदेखा कर जीवन पथ पर बदता रहता है और अकेला नितांत अकेला बना उनके उत्तर की खोज करता रहता है की उसका अपना है कोन मगर यही भ्रम बना रहता है की मैं शायद अपने आस आस पास के लोगो से अपनत्व पा सकू मगर समय की दोड़ मे बदलते मानदंड नै सोच में भागते दोडते उसके अपनो पर समय ही कहा था की वे अपनी उपलब्धियों से ऊपर कुछ सोच पाते
समय से हारता हुआ सत्य अपनी मृग मरीचिका का ख़ुद शिकार हो रहा था और मन था की वह भ्रमात्मकता के मध्य सब जानकर भी सार्थक रहना चाहता था परन्तु समय का कड़वा सच जब सामने आया तो उसे लगा की वह हजारो की भीड़ में अकेला उदास निढाल सा खडा है उसके पास उसका कोई नही था कुछ छोड़ कर जा चुके थे कुछ छोड़ने को उद्यत थे और वह सब आकलन करता कोमा की स्थिति में था गुजरा समय मानस पटल पर बार बार साकार हो उठता था समय और मष्तिष्क का समन्वय चिंता अवसाद और घृणा मे था आगामी भविष्य खतरा बन गया था और उसके साथ वह पृकृति पुरूष रह गया था नितांत अकेला
शायद यही से उसके अभुदय की कहानी चालू हुई उसका बल उसका सत्य कुछ खोने की चिंता से मुक्त था उसे इश्वर के विशाल भण्डार से बहुत कुछ हासिल होना था उसने पूरी ताकत से नए युग का स्वागत किया और वह जीवन की मिसाल बन बैठा. |
समय से हारता हुआ सत्य अपनी मृग मरीचिका का ख़ुद शिकार हो रहा था और मन था की वह भ्रमात्मकता के मध्य सब जानकर भी सार्थक रहना चाहता था परन्तु समय का कड़वा सच जब सामने आया तो उसे लगा की वह हजारो की भीड़ में अकेला उदास निढाल सा खडा है उसके पास उसका कोई नही था कुछ छोड़ कर जा चुके थे कुछ छोड़ने को उद्यत थे और वह सब आकलन करता कोमा की स्थिति में था गुजरा समय मानस पटल पर बार बार साकार हो उठता था समय और मष्तिष्क का समन्वय चिंता अवसाद और घृणा मे था आगामी भविष्य खतरा बन गया था और उसके साथ वह पृकृति पुरूष रह गया था नितांत अकेला
शायद यही से उसके अभुदय की कहानी चालू हुई उसका बल उसका सत्य कुछ खोने की चिंता से मुक्त था उसे इश्वर के विशाल भण्डार से बहुत कुछ हासिल होना था उसने पूरी ताकत से नए युग का स्वागत किया और वह जीवन की मिसाल बन बैठा. |
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